कितने भौतिकवादी हो गए हैं हम : प्राज
साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
कबीर जी के इस दोहे, से सभी परिचित है और मुझे नहीं लगता इस दोहे का अर्थ बतलाने की आवश्यकता है। वर्तमान समय में इस दोहे की प्रासंगिकता तलाशने को जाने क्यों जिज्ञासा मन में उत्पन्न हुआ।
एक ओर जहाँ डिजिटलाइजेशन इस दौर में मानव सभ्यता अपने विचारों को,अभिव्यक्ति को वाट्सएप के स्टेटस रूपी पर्दे पर फिल्मी प्रिमियर की तरह लॉन्च करना सीख गया है।इसी संदर्भ में आपको लिए चलता हूँ सन् 1859 में क्रम विकास के सिद्धांत पर आधारित चार्ल्स डार्विन की लिखी पुस्तक ‘जीवजाति का उद्भव’ (Origin of Species) की ओर जिसमें डार्विन साहब ने बताया कि ” विशेष प्रकार की कई प्रजातियों के पौधे और जीव-जन्तु पहले एक जैसे ही होते थे, पर संसार में अलग-अलग जगह की भौगौलिक परिस्थितियों और वातावरण के कारण उनकी रचना में धीरे-धीरे परिवर्तन होता गया और इस विकास के फलस्वरूप एक ही जाति के पौधों और एक ही जाति के जीव-जन्तुओं की कई प्रजातियां बनती गई। मनुष्य के पूर्वज भी किसी समय बंदर हुआ करते थे, पर कुछ बंदर अलग होकर अलग जगहों पर अलग तरह से रहने लगे और तब उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उनका क्रमिक विकास होता गया जिससे धीरे-धीरे उनमें बदलाव होते गए और वे बंदर से मनुष्य बन गए।” इसी सिद्धांत के जस्ट उलट आज का मानव वर्चुअल वर्ल्ड में जिस प्रकार पब्लिसिटी एवं पापुलॉरिटी बटोरने के लालसावादी प्राणी भी बन गया है।
बात लालसा की आ गई, और मानवों पर चर्चा चल रही है तो इसी संदर्भ में एक छोटा सा प्रश्न जो एक बच्चे ने किया था, उसे आपके समक्ष रखना चाहूंगा। संभवतः मैं ऊर्जा संरक्षण के नियम के विषय में पढ़ रहा था- “उष्मा ना तो उत्पन्न किया जा सकता है और, ना ही उष्मा का विनाश किया जा सकता है। केवल उष्मा का स्थानांतरण होता है।”
इसको सुनकर छोटे से बच्चे ने पूछा:- “चाचु ! उष्मा का विनाश नही हो सकता और ना ही निर्माण ये कैसे संभव है? “
उसे समझाने के लिए कहा- “बेटा जैसे तुम्हारे अंदर आत्मा है ना, वो कभी नहीं मरती। ठीक वैसे ही उष्मा है।”
वो बोला:- “चाचु! कन्फ्यूजन है यार…!”
मैं बोला:- “क्या कन्फ्यूजन ?”
उसने कहा:- “चाचु ! साल 1990 में हमारे गांव में 100 व्यक्ति (आत्मा) थे फिर 2000 में 300 व्यक्ति और अभी 750 लोगों की संख्या है। आत्मा मरती नहीं है फिर ये नये-नये आत्मा कहाँ से इम्पोर्ट हो रहे है? ये हाल हम जनसंख्या के हिसाब से देखे तो भी प्रत्येक 10 में जनसंख्या 20% बढ़ती है। तो ये 20% अतरिक्त आत्मा कहाँ से आते हैं?”
मैनें उसे होमवर्क करों इधर-उधर की बातें नहीं करों कहकर शांत कर दिया। लेकिन उसका प्रश्न वाजिब था, मेरे मन में भी ये सवाल चल ही रहा था फिर विचाराधीन मन ने कहा- “मनुष्य की संख्या बढ़े तो प्राकृतिक संसाधन एवं पारिस्थितिक तंत्र का विलोपन हुआ। इससे जहाँ एक वर्ग की संख्या बढ़ी तो दूसरे वर्ग की संख्या घटना प्रारंभ हुआ। इसे इस प्रकार समझते है कि संसार के प्रत्येक वस्तु में उष्मा निवास करती है चाहे वह जीवित हो या मृत। उष्मा का संचार होते रहता है। जैसे-जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने लगी, अन्य सजीव /निर्जीव संसाधनों की कमी होने लगी। यानी उष्मा की मात्रा उतनी ही है, केवल स्वरूपों में परिवर्तन होने लगा।”
मनुष्य वह प्रजाति जिसमें अपार संभवनाएं है कुछ भी कर गुजरने की, कुछ भी निर्माण कर नव अविष्कारों को मुर्त रूप देने सक्षम है। लेकिन वर्तमान दौर में मनुष्य लालसा, लोभ, ईष्या और भौतिकवाद के चंगुल में बसा है। जनाब, वर्तमान तो भौतिकवाद इतना प्रभावी है कि लोग मनुष्य उपस्कर से लेकर अलंकरण तक तन, मन और धन से समर्पित स्वार्थी बन चुका है। इससे-उससे और सबसे उपर दिखना है, उठना है, बेहतर से बेहतरीन बनना है। इन सभी के प्रश्नों की वजह से जाने आज का मनुष्य अपनी अहमियत भूल गया है। वर्तमान दौर में भावनाओं का मार्केटिंग हो रहा है। कमाल नहीं है? आप कहेंगे भावनाओं का मार्केटिंग कैसे? इसे ऐसे समझने का प्रयास करते हैं, लोग प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, इसके लिए किसी भी हद तक जाने को आतुर है। जैसे चाहे वह स्टंट क्यों ना हो, या फिर अश्लीलता परोसते फुहड़ फैशन से लबरेज अंग वस्त्र, टशन से अशिष्टता के बोल सरगम की तरह बेधड़क कहना हो या फिर मद्द को नाम पर हेल्पिंग हैंड नेचर का प्रदर्शन सब कुछ कमाल है। बहरहाल वर्तमान दौर में सिर्फ ये देखा गया है कि इतना दिजीए कि मैं भुखा ना रहूं, दुनियाँ चाहे कुछ हो जाय। शेष आप समझदार पाठक हैं।
आपका
प्राज
छत्तीसगढ़