दलित चेतना और अम्बेडकर
आचार्य गुरुदास प्रजापति महक जौनपुरी
23, मेहरावां, सोनिकपुर, जौनपुर उ0प्र0
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डॉ0 अम्बेडकर का जन्म मध्य प्रदेश इंदौर जनपद के महू नामक उपनगर में 14 अप्रैल, 1891 ई0 को हुआ था। इनके पिता रामजी सकपाल धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। अम्बेडकर को विद्यालय में अछूत भावना का सामना करना पड़ा। अस्पृश्यता उन्मूलन की भावना बचपन में ही उनके दिल में बस गई।
डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जिस समुदाय में पैदा हुए और पले बढ़े, उसका उद्धार उनके जीवन और चिन्तन का प्रधान लक्ष्य था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आन्दोलन और संघर्ष करने के पूर्व उन्होंने परम्परागत हिन्दू सामाजिक संरचना का व्यवस्थित अध्ययन किया। उनके विचार से अस्पृश्यता दलितों के उत्थान के मार्ग में सबसे भयानक व्यवधान थी। उनका मत था कि अस्पृश्यता दलितों के मानव होने पर प्रश्न चिह्न लगाती है। इसलिए वे चाहते थे कि दलित इसके विरुद्ध संघर्ष करें उन्होंने कहा- आज तक हम मानते थे कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ कलंक है। जब तक यह हिन्दू धर्म पर कलंक है, ऐसा हम मानते थे तब तक उसे नष्ट करने का काम हमने आप पर सौंप दिया था। हमारा अब मत है कि यह हमारे ऊपर लगा हुआ दाग है, इसलिए इसे धोकर निकालने का पवित्र काम भी हमने शुरू किया है।
डॉ0 अम्बेडकर ने दलित समस्या का ऐतिहासिक संदर्भ में विश्लेषण करने का प्रयास किया। उन्होंने वैज्ञानिक पद्धति का सहारा लिया। उनका मत था कि दलित हिन्दुओं से पृथक भिन्न संस्कृतियों के लोग हैं। उनका मत था कि दलित प्राचीन बौद्ध हैं। प्राचीन भारत में वैदिक संस्कृति और बौद्ध संस्कृति में निरन्तर संघर्ष चला करता था। अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का वर्चस्व था तथा वैदिक धर्म अवनति की ओर था। 185 ई0 पूर्व में अन्तिम मौर्यशासक वृहदर्थ मौर्य की पुष्यमित्र शुंग ने हत्या कर दी। पुष्यमित्र शुंग वैदिक धर्मावलम्बी था।
वैदिक धर्म के लिए यह स्वर्ण युग था। इसी काल में मनुस्मृति की रचना हुई। इस ग्रन्थ में दलितों के प्रति घृणा व्यक्त की गई है कालान्तर में अस्पृश्यता की भावना का उदय हुआ। अम्बेडकर के अनुसार यह 400 ई0 के आस-पास हुआ। अस्पृश्यता के मूल में उन्होंने गोमांस आहार की बात बताई। अस्पृश्यता के लिए अम्बेडकर जी वर्ण व्यवस्था एवं हिन्दू धर्मशास्त्र को उत्तरदायी बताते हैं जिसमें सच्चाई निहित है। अम्बेडकर ने जाति प्रथा, अस्पृश्यता तथा सामाजिक विषमता का विरोध किया। अम्बेडकर ने उन लोगों में आत्माभिमान जगाया जिन्हें हिन्दू समाज व्यवस्था ने सदियों से आत्महीन बना दिया था। उन्होंने 1927 में महाड़ के चबदार तालाब पर सत्याग्रह करके दलितों को अमानुषिक छुआछूत के विरूद्ध उठ खड़े होने की प्रेरणा दी दूसरी ओर शिक्षण संस्थाओं का जाल बिछाकर महाराष्ट्र के दलितों को आधुनिक जीवन के लिए आवश्यक क्षमताओं से लैस होकर सम्मान पूर्वक जीवन जीने के दिशा में प्रवृत्त किया। देश के अनेक भागों में आज अगर अत्याचारों के विरूद्ध युवा दलितों को रिरियाने के बजाय संघर्ष का तेजस्वी स्वर देता है तो यह डॉ0 अम्बेडकर का स्वर है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार मानव समाज में तीन प्रकार की शक्तियाँ होती है। मनुष्य बल, धन बल और मानसिक बल। अस्पृश्य में इन तीनों शक्तियों का अभाव है। संविधान में उन्होंने समानता, भ्रातृत्व, न्याय और स्वतंत्रता को प्रमुख स्थान दिया। यह सामाजिक न्याय के लिए महत्वपूर्ण कवच हैं इसके साथ वे शिक्षा को महत्त्व देते है। उन्होंने समाजवाद के लिए अनुच्छेद 14, 16, 17, 29, 35, 46, 330, 332, 334, 338 एवं पांचवी अनुसूची को संविधान में जोड़ा है।
यदि हम अम्बेडकर की दलित चेतना के आयाम के रूप में संक्षेप में बताये तो शिक्षा, समानता, भातृत्व, न्याय, समानत को मान सकते है।
हमारे इन विचारों की पुष्टि डॉ0 मोहम्मद आबिद अंसारी के निम्नांकित पंक्तियों से होती है –
डॉ0 अम्बेडकर के प्रमुख संदेश जैसे समानता, स्वतंत्रता, भाई-चारा, शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो। बुद्ध, धम्म एवं संघ की प्रासंगिकता का अनवरत बने रहना।
यदि गम्भीरता से विचार किया जाये तो दलित चेतना के ये उत्साह हर प्रकार के दलित लेखन में ढूंढ़े जा सकते हैं इस चेतना का आधार यह है कि यह देश उन लोगों का भी है जो मात्र दो जून की रोटी मुश्किल से जुटा पाते हैं और जिनके खून-पसीने की सब्सिडी पर देश की सरकार अपना जी0डी0पी0 बढ़ाती है। आर्थिक विकास का ढिंढोरा पीटती है और यह उनका भी है जो अपने प्राणों की बाजी लगाकर इन मुसीबत जदों के हक की लड़ाई लड़ते हैं। लेकिन यह देश उन लोगों का तो कत्तई नहीं हो सकता जो देश का विकास करने के नाम पर इनका सर्वनाश करते हैं और यह देश उनका भी नहीं हो सकता जो इन हत्यारों को मनमानी करनें की छूट देकर हिंसक कुकृत्यों को जायज ठहराते हैं।
ऊपर पंक्तियों में दलितों की क्रान्ति चेतना का बीज छिपा हुआ है, अन्याय को हटाने का तरीका है अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करना। इस संघर्ष की प्रेरणा आधुनिक काल में महात्मा ज्योतिबाफुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, पेरियार, रामस्वामी नायकर, भीमराव अम्बेडकर के चिन्तन एवं कार्य-कलापों से मिली है अब दलित चेतना साहित्य के कविता, कहानी, उपन्यास लेखन आयाम में ढूंढ़ी जा सकती है बीसवीं शती के अन्तिम दशक में यह घोषणा की गई कि दलित लेखन दलित कर सकता है। वैसे दलित लेखकों में ओम प्रकाश बाल्मीकि, मोहनदास नैमिसराय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं-
इस प्रकार कथाकार दलितों के जीवन का दर्दभरा इतिहास कहते हैं। इस वर्णन में पीड़ा का एहसास है। मानवता की पुकार है। विद्रोह का स्वर है। पाठक की सहानुभूति व स्वानुभूति का निमंत्रण है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1 अलख निरंजन: समकालीन दलित चिन्तक: पृ0 46
2 डॉ0 एम0 फिरोज खान तथा इकरार अहमद: नये संदर्भ में दलित विमर्श, पृ0 14
3 डॉ0 एम0 फिरोज खान तथा इकरार अहमद: नये संदर्भ में दलित विमर्श, पृ0 25