मैं
‘मैं’, मैं को ढूंढ रही थी,
नगर-नगर गली, गली, घूम रही थी,
‘मैं’ की तलाश जारी थी,
अब खुद के अंदर देखने की बारी थी,
कस्तूरी मृग की नाभि में थी,
मृगी इधर-उधर भाग रही थी,
हे प्रभु! तो ये मेरे अंदर की नारी थी,
सुला दी गई ,जो बेचारी थी।
सामने मुक्त आकाश था,
अब उड़ने की बारी थी
अभिव्यक्तियाँ निकल निकल,
पन्नों पर इंद्रधनुष बना रही थीं,
सोई हुई कलाओं को, जगा रही थीं,
नाच रही थी, मैं झूम रही थी,
चेहरे पर खुशी छाई थी,
लौटी जब आज घर,हाथों में सम्मान पत्र,
और गुलाबों का गुलदस्ता,
गले मे सम्मानसूचक हार, देखो तो—-
घर मे घुसते ही चिल्लाया था
पर ड्रॉइंग रूम में किसी को न पाया था,
दोनो बेटे थे किचन में,
एक बना रहा था ऑमलेट,
दूजे ने गैस पर चाय चढ़ाया था,
उड़ चली चेहरे की खुशी कपूर सी
हटा उनको, खुद नाश्ता बनाया था,
चेहरे पर स्वेद कण, और संतोष के क्षण,
और शायद हाँ, हाँ शायद,
वो मिल रही थी अब उस ‘मैं’ से,
जिसे जबरन सुला, छाया को जगाया था,
आंतरिक प्रसन्नता को छोड़,
सतही खुशी को अपनाया था।
रश्मि सिन्हा
मौलिक रचना