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नीरू सिंह की कविता – ‘श्राप’

जिस आँगन उठनी थी डोली
उस आँगन उठ न पाई अर्थी भी।
क्या अपराध था मेरा?
बस लड़की होना !
अर्थी भी न सजी इस आँगन !
कैसे सजाते? कैसे सजाते?
बटोरा होगा मेरा अंग अंग धरती से !
कफ़न में समेटा होगा मेरी आबरू को !
रात के संनाटे में जली कि…
कही कोई सुन ना ले चीख मेरी।
कब तक नोचोगे मेरे जिस्म को,
अब तो जली अस्थियाँ भी न बची।
ये कैसी सजा पाई थी बेटी होने की?
आखरी विदाई पर मिल न पाई जननी से
सुनलो ऐ पुरुष प्रधान समाज !
रहा कर्ज तुम पर इस बेटी का,
करो फर्ज पूरा अपना इंसान होने का,
वरना जाते जाते दे जाऊँगी श्राप !
पुत्रीहीन हो यह समाज !
फिर न जन्मे गा किसी का कुलदीपक
न जिस्म और आबरू का भूखा कोई !
फिर न कोई बहन-बेटी होगी बेआबरू यूँ।