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विवेक की चार कविताएं

हमने हर मोड़ पर जिसके लिये, ख़ुद को जलाया है।

उसी ने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।।

किया है जिसके एहसासों ने,  मेरी रात को रोशन।

सुबह उसकी अदावत ने, मेरी रूह को जलाया है।।

मुहब्बत के थे दिन ऐसे, दुआ बस ये निकलती है।

ख़ुशी से चहके वो हरपल, मुझे जिसने रुलाया है।।

चुराया जिसने आसमाँ से, मेरे आफताब को।

वही रक़ीब उन हाथों की, लकीरों में आया है।।

सताती हैं वो तेरे प्यार की बातें,  ख्यालों में।

तेरी इस बेरुख़ी ने मुझको, पत्थरदिल बनाया है।।

किया फिर याद तुझको आज, मैंने अपने अश्क़ों से।

तेरे एहसास की जुंबिश ने, फिर इनको बहाया है।।

कि तूने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।

हमने हर मोड़ पर तेरे लिये, ख़ुद को जलाया है।।

2 – ज़िंदगी का फलसफा

सोन चिरैया धूप मेरे आँगन में आती,

और बसंत से पूर्व कोकिला सी है गाती।

फुदक-फुदक कर गौरैया सी इधर-उधर जाती है,

फिर चंचल गिलहरी सी, दीवार पे चढ़ जाती है।

दोपहरी में पसर गयी वह, अनचाहे मेहमान सी,

और शाम तक सिमट गयी वह, एक कपड़े के थान सी।।

 

3 – ख़्वाहिश

सिलसिला यूँ चलने दो, जो हो रहा है होने दो,

कुंज गली की पत्तियों सा, समय को बिखरने दो।

मन के टेढ़े रास्तों पर, मोड़ तो कई आयेंगे,

खोज में आनन्द की पर, बहुतेरे मुड़ जायेंगे।

नयन जो धुंधलायें ग़र, तुम आंसुओ से धो लेना,

सीपियों के मोतियों से, गलहार तुम पिरो लेना।

ये भी बिखर जायेंगे और मिट्टी में मिल जायेंगे,

इक अधूरी याद‌ से फिर, जी को ये तड़पायेंगे।

छूना मत‌ झुककर इन्हें, नये बीज फिर से पड़ने दो,

नये पुष्प फिर से खिलने दो, नयी आस फिर से पलने दो।

कुंज गली की पत्तियों सा, समय को बिखरने दो।।

सिलसिला यूँ चलने दो, जो हो रहा है होने दो।।

 4  स्वदेशी

राष्ट्रवाद की अलख जगाओ,

आओ स्वदेशी को अपनाओ।

छोड़ विदेशी आकर्षण को,

राष्ट्र के हित में सब लग जाओ।

माना कठिन डगर है लेकिन

हमको जुगत लगानी होगी

कोरोनामय अर्थव्यवस्था

हमको ऊपर लानी होगी।

चाइनीज़ के राग को छोड़ो

देसी मोह से नाता जोड़ो

हमसे नृप संकल्प माँगता

उसके इस भ्रम को न तोड़ो।

मिला नसीबों से ये राजा

देश के हित की बात जो करता

हम सबका उज्ज्वल भविष्य हो

आठों प्रहर हमीं पे मरता।

आज राष्ट्र के हित में ग़र हम

राजा से कदम मिलायेंगे

वह दिन भी फिर दूर न होगा

जब विश्व गुरु बन जायेंगे।