मीना कुमारी नाज़ की शायरी
डॉ. वसीम अनवर
सहायक प्राध्यापक
उर्दू एवं फारसी विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
wsmnwr@gmail.com; 9301316075
मीना कुमारी को एक अव़्वल दर्जा की फ़िल्मी अदाकारा के तौर पर सारी दुनिया जानती है। इन्होंने अपनी अदाकारी से मुख़्तलिफ़ इन्सानी कैफ़ियात, जज़्बात, एहसासात और तजुर्बात की तर्जुमानी की है। ट्रेजेडी क़ुईन के ख़िताब से नवाज़ी जाने वाली अदाकारा मीना कुमारी का असल नाम माहजबीं बानो था। वो बेहतरीन अलमीया (ट्रेजेडी) अदाकारा होने के साथ साथ एक काबिल-ए-तारीफ़ रक़ासा, अच्छी गुलूकारा और बाक़ायदा शायरा भी थीं। माहजबीं बानो, नाज़ तख़ल्लुस करतीं थीं। कहा जाता है कि तरक़्क़ी-पसंद शायर कैफ़ी आज़मी और राईटर शायर गुलज़ार से अपने अशआर पर इस्लाह लिया करती थीं। लेकिन मीना कुमारी का शायरी का आहंग कैफ़ी आज़मी के बजाय गुलज़ार से क़रीबतर है। गुलज़ार और मीना कुमारी के दरमयान एक जज़्बाती रिश्ता था। मौत से क़ब्ल मीना कुमारी ने तक़रीबन ढाई सौ निजी डायरीयां गुलज़ार को सौंप दी थीं। गुलज़ार ने इन डायरियों से मुंतख़ब कलाम को ‘’तन्हा चांद’’ के नाम से तर्तीब देकर छपवा दिया। मीना कुमारी नाज़ का मजमुआ ए कलाम ‘’तन्हा चांद’’ में उनकी नज़्में और ग़ज़लें शामिल हैं। मीना कुमारी को अदाकारी से ज़्यादा शायरी पसंद थी, इन्होंने एक मर्तबा इंटरव्यू देते हुए कहा था कि अदाकारी मेरा पेशा है और शायरी करना मेरा शौक़। फ़ुर्सत के लमहात वो अपने शौक़ के मुताबिक़ उर्दू के मयारी रसाइल-ओ-जराइद पढ़ कर और शेअर कह कर गुज़ारा करती थीं। मीना कुमारी को पढ़ने का बहुत शौक़ था, उनकी अपनी ज़ाती लाइब्रेरी भी थी। ग़ालिब और फ़ैज़ अहमद फैज़ उन के पसंदीदा शायर थे।
मीना कुमारी नाज़ के शेअरी मजमुआ ए कलाम ‘’तन्हा चांद’’ का मुताला करने के बाद ये बात आसानी से कही जा सकती है कि उनके अशआर सतही फ़िल्मी गीतों से मुख़्तलिफ़ हैं। ये भी एक हक़ीक़त है कि उनकी कुछ नज़्में और ग़ज़लें सहल-ए-मुम्तना के ज़ुमरे में आती हैं। लेकिन मुताद्दिद नज़्में और ग़ज़लें हद दर्जा जानदार और पुर-असर हैं जो उन्हें उर्दू अदब के ऐवान में मुक़ाम दिला सकती हैं। अपने मुताल्लिक़ लिखती हैं:
राह देखा करेगा सदीयों तक
छोड़ जाऐंगे ये जहां तन्हा
मीना कुमारी नाज़ ख़ुदादाद शायरा थीं, लेकिन ज़िंदगी उनके महबूब की तरह बेवफ़ाई कर गई। उनकी सलाहीयतों में थोड़ी सी पुख़्तगी की ज़रूरत थी। फिर भी उनकी बेहतरीन नज़्मों में ये कमी तक़रीबन नज़र नहीं आती है। मीना कुमारी नाज़ की तख़लीक़ात रूमानी, शख़्सी या दाख़िली किस्म की हैं। उनकी रूमानियत सेहतमंद, ज़िंदगी बख़श, तसन्ना ओ बनावट से आज़ाद है। उनका अंदाज़ बयान सादा और पुर कशिश है। जो बात दिल से निकलती है दिलों पर-असर करती है। तन्हाई की शिद्दत, ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत की तलाश और हसरत-ओ-यास की अफ़्सुर्दगी मौजूद है। मीना कुमारी को फिल्मों से बेहद मक़बूलियत और इज़्ज़त हासिल हुई। लेकिन ज़िंदगी के गहरे मुशाहिदे ने उन्हें अफ़्सुर्दा बना दिया उनका महबूब उनके दल के क़रीब नहीं आ सका और वो तन्हा ही रहीं। इस तन्हाई को इन्होंने दिल की गहिराईयों से महसूस किया:
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस छिप गया तारा
थर थराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा
इस तन्हाई को मिटाने के लिए वो हमेशा अपनों में अपने को तलाश करती रहीं, लेकिन उन्हें कोई हक़ीक़ी हमसफ़र नहीं मिल सका। वो इस वसीअ ख़ार-ज़ार दश्त-ए-हयात में उदास और तन्हा चलती रहीं:
उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है
रुपहली चांदनी है और घुप अंधेरा है
कहीं कहीं कोई तारा कहीं कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वो आपका सवेरा है
ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम ना बहलाओ
उसे तो रहने दो मेरा, यही तो मेरा है
नज़्म टूटे रिश्ते झूठे नाते में इसी तन्हाई, बेगानगी और झूठे रिश्ते का इज़हार मिलता है। होशमंद दिमाग़ अकेले दिल के रोने की मुख़ालिफ़त कर रहा है:
टूट गए सब रिश्ते आख़िर
दिल अब अकेला रोय
नाहक़ जान ये खोए
इस दुनिया में कौन किसी का
झूठे सारे नाते
मीना कुमारी नाज़ के बेशतर अशआर हैजानअंगेज़ी और जज़्बातीयत से पाक हैं। शायरा का दिल दोस्ती और इन्सानी रिश्तों के वहम से आज़ाद हो कर ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से हमकिनार है। इन्होंने अपनी मुंतशिर ज़िंदगी के एहसास को कभी कभी बड़े ही जदीद और फ़नकाराना अंदाज़ में पेश किया है:
टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली
रिमझिम रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है अमृत भी है
आँखें हंस दें दिल रोया, ये अच्छी बरसात मिली
……………………
ना इंतिज़ार, ना आहट, ना तमन्ना, ना उम्मीद
ज़िंदगी है कि यूं बे-हिस हुई जाती है
इक इंतिज़ार मुजस्सिम का नाम ख़ामोशी
और एहसास ए बेकरां पे ये सरहद कैसी
ज़िंदगी किया है? कभी सोचने लगता है ज़हन
और फिर रूह पर छा जाते हैं
दर्द के साय, उदासी का धुआँ, दुख की घटा
दिल में रह-रह कर ख़्याल आता है
ज़िंदगी ये है? तो फिर मौत किसे कहते हैं?
सच्ची मुहब्बत से मुताल्लिक़ नज़्में और ग़ज़लें बेहद जानदार और अच्छी हैं। इन अशआर में शायरा अपनी रूह की गहिराईयों से अपने एहसासात और तजुर्बात को क़लम-बंद करती है। मुहब्बत के हसीन लमहात को वो अपने दामन-ए-दिल से लिपटा कर बे-ख़ुद और सरशार नज़र आती है। मुहब्बत के मौज़ू पर उनकी कई अच्छी नज़्में हैं, जिनमें तजुर्बे की सच्चाई, बेपनाह जज़्बा ए मुहब्बत, नाक़ाबिल ए तशरीह कैफ़-ओ-सर-मस्ती, फ़ित्री तसलसुल, रवानी और पुरसोज़ आहंग मौजूद है:
मसर्रतों पे रिवाजों का सख़्त पहरा है
ना जाने कौनसी उम्मीद पे दिल ठहरा है
तेरी आँखों में झलकते हुए ग़म की क़सम
ए दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है
…………………………
मेरे दर्द तमाम
तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों से
तो इक मस्जिद-ए-वीराँ है मैं तेरी अज़ां
अज़ां जो
अपनी ही वीरानगी से टकराकर
ढकी छिपी हुई बेवा ज़मीं के दामन पर
पढ़े नमाज़, ख़ुदा जाने किस को सजदा करे
मुहब्बत की सरमस्ती शायरा के दिल-ओ-दिमाग़ पर जारी-ओ-सारी है। उसने अपनी बेपनाह मुहब्बत का अमृत इन अशआर में उंडेल दिया है। ये शायरी मौसीक़ी और बातिनी आहंग से पुर है।
मीना कुमारी नाज़ुकी कुछ नज़मों और ग़ज़लों में ख़्वाहिश-ए-नफ़सानी का ज़िक्र है, लेकिन हिजाब के साथ। इन अशआर में जिस्मानी लग़ज़िशों का एतराफ़ और शख़्सी ज़िंदगी का इन्किशाफ़ मिलता है:
हया से टूट के आह, कॉपती बरसात आई
आज इक़रार-ए-जुर्म कर ही लें वो रात आई
घटा से होटों ने झुक कर ज़मीं को चूम लिया
हाय उस मल्गुजे आँचल में कायनात आई
ठंडा छींटा पड़े जैसे दहकते लोहे पर
नूर की बूँद लबों से जो मेरे हाथ आई
इन अशआर में जिन्सी तजुर्बे का इज़हार निहायत ही उम्दा और फ़नकाराना है। मुहब्बत और ख़ाहिश नफ़सानी की तसकीन दोनों एक दूसरे की तकमील करती हैं। दहकते लोहे से शहवानी जिस्म की मुशाबहत बिलकुल साफ़ और मानी-ख़ेज़ है। इसी तरह की कुछ और मिसालें मुलाहिज़ा हों:
ओस से गीली गीली कासनी छाओं में
धानी धानी हथेली रात की चूम कर
चैन सा पा गए
चैन सा पा गए
रात घुटने लगी
दर्द बढ़ने लगे, ग़म सुलगने लगे, तन झुलसने लगे
ये कैसा पड़ाव है इस रात का?
दिल के चारों तरफ़ चैन ही चैन है
ना उधर नींद है ना उधर नींद है
……………………
मेरी रूह भी जिला ए वतन हो गई
मेरा जिस्म इक सेहन हो गया
कितना हल्का सा हल्का सा तन हो गया
जैसे शीशे का सारा बदन हो गया
मेरा दिल बेवतन बेवतन हो गया
नज़्म चाहत में भी इसी तरह की कैफ़ीयत का इज़हार मिलता है:
फिर से चाहत ने सर उठाया है
गर्म मिट्टी की तप्ती भाप जैसे
सर उठाए और प्यासी आँखों से
अपनी क़िस्मत का आसमां से सौदा करले
अपने झुलसे हुए बदन के लिए
इस की कुछ देर की साअत के लिए
नज़्म महंगी रात मैं इस तजुर्बा को पशेमानी के साथ पेश किया गया है:
जलती बुझती सी रोशनी के परे
हम ने एक रात ऐसी पाई थी
रूह को दाँत से जिसने काटा
जिसकी हर अदा मुस्कुराई थी
जिसकी भींची हुई हथेली से
सारे आतिश-फ़िशाँ उबल उठे
जिसके होंटों की सुर्ख़ी छूते ही
……………………
आग सी तमाम जंगलों में लगी
राख माथे पे चुटकी भर के रखी
ख़ून की ज्यूँ बिंदिया लगाई हो
किस क़दर जवान थी
मिसमिसी थी
महंगी थी वो रात
हमने जो रात यूंही पाई थी
मीना कुमारी नाज़ की कुछ नज़्मों में फ़लसफ़ियाना रंग भी है। खिड़की, लम्हे, ख़मोशी, बादल और चट्टान, सुहानी ख़ामोशी, ग़म की तलाश, एक पत्थर और ख़ाली दुकान इसी तरह की नज़्में हैं। नज़्म लम्हे में वो कहती हैं कि लम्हे नाक़ाबिल गिरिफ़त हैं। बरसात की बूँदों की तरह हाथ से फिसल कर टूट जाते हैं। इसी तरह नज़्म खिड़की में शायरा ने ला-महदूद वक़्त के ला मुतनाही, ग़ैर वाज़िह पैकर को महसूस करते हुए यूं पेश किया है:
ज़माना है माज़ी
ज़माना है मुस्तक़बिल
और हाल एक वाहिमा है
किसी लम्हे को मैंने जब
छूना चाहा
फिसल कर वो ख़ुद बन गया एक माज़ी
नज़्म ख़मोशी में भी वक़्त ही को समझने की कोशिश की गई है। उफ़ुक़ की कड़ी कहाँ से शुरू हो कर कहाँ ख़त्म होती है किसी को मालूम नहीं:
कहाँ शुरू हुए ये सिलसिले कहाँ टूटे
ना उस सिरे का पता है ना उस सिरे का पता
”ख़ाली दुकान में मौजूद माद्दी दुनिया को ख़ाली दुकान से तशबीह दी है। यहां शायरा को वो चीज़ नहीं मिलती जिसकी वो ख़रीदार हैं, वो प्यार का लम्स चाहती है जो बेचैन रूह को तसकीन दे सके। वक़्त की दुकान इस से ख़ाली है। यहां तो सिर्फ शौहरत के काग़ज़ी फूल, मसनुई मसर्रतों के खिलौने हैं।
नज़्म एक पत्थर और बच्चा में मुंजमिद झील के संजीदा पानी पर शरीर बचा के पत्थर फेंकने से फ़नकारा को बड़ी तकलीफ़ होती है। दर्द-आश्ना और हद दर्जा हस्सास दिल महसूस करता है कि बच्चा की इस हरकत ने झील को ज़ख्मी कर दिया है। फैली हुई लहरें झील का काँपता हुआ दिल है अगर दुनिया का हर फ़र्द इतना ही दर्द-आश्ना हो जाये तो ये दुनिया जन्नत बन जाये।
नज़्म सुहानी ख़ामोशी में शायरा अपनी सुहानी मौत का तसव्वुर करती है। मौत शायरा के लिए भयानक नहीं, वो मानती है कि मौत के बाद अगरचे महिज़ खला है, सिर्फ तारीकी है, लेकिन वो तारीकी इस करब अंगेज़ उजाले से यक़ीनन बेहतर होगी।
मीना कुमारी नाज़ की शायरी के बड़े हिस्से का शेअरी आहंग, गुलज़ार के शेअरी आहंग से क़रीब नज़र आता है। लेकिन कैफ़ी आज़मी की शायरी के असरात भी इन्होंने क़बूल किए हैं। मिसाल के तौर पर कुछ अशआर मुलाहिज़ा हों:
हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जान के खाया होगा
(कैफ़ी आज़मी)
आबला-पा कोई इस दश्त में आया होगा
वर्ना आंधी में दिया किस ने जलाया होगा
ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कँवारे सज्दे
इक-इक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए होंटों की बुझाई होगी
रिस्ते पानी को हथेली पे सजाया होगा
मिल गया होगा अगर कोई सुनहरा पत्थर
अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा
(मीना कुमारी नाज़)
बहैसीयत मजमूई मीना कुमारी नाज़ एक ख़ुदादाद शायरा थीं। अगर ज़िंदगी वफ़ा करती और उन्हें तख़लीक़ी सफ़र के लिए कुछ वक़्त और मिला होता तो वो उर्दू की और भी अच्छी शायरा हो सकती थीं। उनकी शायरी एक सच्चे दिल की आवाज़ है, जिसमें सादगी, कशिश, हज़न-ओ-मलाल, करब-ओ-अंदोह के अनासिर, अफ़्सुर्दगी और सेहत मंद रूमानियत मौजूद है। अगर वो अदाकारा ना होतीं और सिर्फ अपनी शायरी छोड़कर इस दुनिया से रुख़स्त हो जातीं तो भी ये शायरी उनका नाम रोशन करने के लिए काफ़ी थी।
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Dr. Waseem Anwar
Assistant Professor
Department of Urdu
Dr. Harisingh Gour Vishwavidyalaya Sagar MP
wsmnwr@gmail.com, 9301316075
Last Updated on November 9, 2021 by wsmnwr