‘अनुवाद’ शब्द अंग्रेजी के ‘Transalation’ शब्द के लिए हिंदी पर्याय के रूप में चर्चित है| इसका अर्थ है एक भाषा से दूसरी भाषा में भाव-विचार को ले जाना होता है| ‘Translation’ के समान प्रतीत होने वाला दूसरा शब्द भी अंग्रेजी में उपलब्ध है- ‘Transcription’ इसे हिंदी में लिप्यंतरण कहा जाता है| दोनों शब्द समानार्थी होने का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं परंतु दोनों शब्दों में अंतर हैं| इस अंतर को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है| जैसे- ”राम ने रावण को मारा|” इस वाक्य को उपुर्यक्त दोनों प्रकार से रूपांतरित करने पर दो रूप सामने आ जाते हैं|
- Ram Killed Ravan (Translation)
- Ram ne Ravan Ko Mara (Transcription)
(राम ने रावण को मारा|)
इससे सिद्ध होता है कि पहले वाक्य के द्वारा अनुवाद किया है और दूसरे वाक्य में मूल वाक्य की केवल लिपि परिवर्तीत करके ‘रोमन लिपि’ में रख दिया है| ‘अनुवाद’ के संदर्भ में ‘भाषांतर’ की बात करते समय हमारा अभिप्राय मूल आशय, भाव-विचार को दूसरी (लक्ष्य) भाषा में उसके स्वभाव और प्रकृति के अनुसार अंतरित करना है न कि केवल लिप्यंतरण करना| हिंदी भारत देश की राजभाषा है जब से हिंदी राजभाषा बनी है तब से हिंदी के प्रयोजनमूलक रूप में अनुवाद एक जरूरी एवं अनिवार्य साधन बनकर उभरकर आया है| अनुवाद विज्ञान विनाश का विज्ञान नहीं है बल्कि यह एक-दूसरे को जोड़ने का कार्य करता है| अपनेपन एवं अविष्कार का कार्य अनुवाद करता है| इसी वजह से इस युग की आवश्यक प्रक्रिया के भूमिका में समाज, संस्कृति, भाषा आदि सभी के समन्वय के लिए अनुवाद महत्त्वपूर्ण है| अनुवाद के लिए दो भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक होता है| इन दो भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में ‘स्त्रोत भाषा’ और ‘लक्ष्य भाषा’ की संज्ञा दी गई है| जिस भाषा का आशय अनूदित होता है वह ‘स्त्रोत भाषा’ कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह ‘लक्ष्य भाषा’ होती है|
‘अनुवाद’ संस्कृत भाषा का शब्द है| अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद्’ धातु से है, जिसका अर्थ है- कहना या बोलना| ‘वद्’ धातु से ‘धञ्’ प्रत्यय जुड़ने से ‘वाद’ शब्द बना है| फिर उसमें ‘बाद में’, ‘पीछे’ आदि अर्थों में प्रयुक्त ‘अनु’ उपसर्ग जोड़ने से ‘अनुवाद’ शब्द की निर्मिती हुई है|
विभिन्न भाषा के अनेक विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार अनुवाद की परिभाषाएँ की हैं| वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत हैं-
I हिंदी विद्वानों के मतानुसार-
- डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी- ”एक भाषा में व्यक्त भावों या विचारों को दूसरी भाषा में समान और सहज रूप से व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है|”1 अर्थात् स्त्रोत भाषा के आशय को लक्ष्य भाषा में मूल भावों के साथ परिवर्तीत करना ही अनुवाद कहलाता है|
- डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव- ”एक भाषा (स्त्रोत भाषा) की पाठ सामग्री में अंतर्निहित तथ्य का समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में संगठनात्मक रूपांतरण अथवा सर्जनात्मक पुनर्गठन को ही अनुवाद कहा जाता है|”2 अर्थात् मूल भाषा की साधन सामग्री को आशय के साथ दूसरी भाषा में रुपांतरित करना ही अनुवाद होता है|
- हरिवंशराय बच्चन- ”यूनानी विद्वानों ने कला के संबंध में जो सबसे बड़ी बात कही थी, वो यह थी कि कला को कला नहीं प्रतीत होना चाहिए, उसे स्वाभाविक लगना चाहिए| इसी प्रकार अनुवाद को अनुवाद नहीं लगना चाहिए| उसे मौलिक लगना चाहिए| यह तभी संभव है जब सृजन में शब्द के स्थान को सूक्ष्मता से समझ लिया जाए| शब्द के स्थूल रूप और उसके कोश पर्याय को अंतिम सत्य मान लेने वाला सफल अनुवाद नहीं हो सकता| शब्द साधन है साध्य नहीं| साध्य तो वह भाव या विचार है जो पीछे है|”3 अर्थात् किसी कला, भाव, को अगर अनूदित करना है तो उसमें मौलिक भाव के साथ अनूदित करना चाहिए| अनूदित करते समय सहज भाव सहित कला रूपांतरित होनी चाहिए| तभी उसे अनुवाद कहा जाता है|
- अवधेश मोहन गुप्त- ”अनुवाद स्त्रोत पाठ के कथन और कथ्य की लक्ष्य भाषा में सहज एवं समतुल्य अभिव्यक्ति है|”4 अर्थात् अनुवाद करते समय मूल पाठ के कथ्य एवं कथा के भाव को सहज रूप से भाषांतरित करना ही अनुवाद होता है|
II संस्कृत विद्वानों के मतानुसार-
- शब्दार्थ चिंतामणि कोश में लिखा है- ”ज्ञानार्थस्य प्रतिपादने”5 अर्थात् पहले कहे गए आशय को उसी भावों के साथ पुन: प्रस्तुत करना ही अनुवाद है|
- ऋग्वेद में लिखा है- ”अन्वेको वदति यद्ददाति|”6 अर्थात् किसी कथन के पश्चात् उस कथन के मूल विचारों सहीत, दूसरी भाषा द्वारा प्रस्तुत करना ही अनुवाद कहलाता है|
- पाणिनि के अनुसार- ”अनुवादे चरणानाम्|”7 अर्थात् ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ में पाणिनि लिखते हैं कि पूर्व कहे गए विधान को मूल आशय के साथ दूसरी भाषा में प्रकट करना याने अनुवाद है|
- भर्तहरि के अनुसार- ”आवृत्तिरनुवादोवा|”8 अर्थात् बार-बार होनेवाली आवृत्ति, मूल भावों के साथ लक्ष्य भाषा में रूपांतरित होना याने अनुवाद कहलाता है|
III पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार-
- ए. एच. स्मिथ- “अर्थ को बनाए रखते हुए, अन्य भाषा में अंतरण ही अनुवाद है|”9 अर्थात् किसी रचना को स्त्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में परिवर्तीत करते समय मूल रचना के अर्थ को जैसा की वैसा रूपांतरित करना ही अनुवाद है|
- फोर्स्टन- ”एक भाषा में अभिव्यक्त पाठ के भाव की रक्षा करते हुए जो सदैव संभव नहीं होता, दूसरी भाषा में उसे उतारने का नाम ही अनुवाद है|”10 अर्थात् एक भाषा के वास्तविक विचारों को बाधित न होते हुए दूसरी भाषा में परिवर्तीत करने का प्रयास ही अनुवाद होता है|
उपर्युक्त सभी विद्वानों के अवलोकन से सिद्ध होता है कि मूल विषय, आशय, या भाव और उसके अनुवाद में सहज समतुल्यता होना जरूरी है| अनुवादक का यह कर्तव्य है कि वह मूल पाठ के विचारों को जहाँ दूसरी भाषा में लाने का प्रयास करे| जिसमें वह अनुवाद कर रहा है, तब जाकर अनुवाद सफल एवं सार्थक होता है| इसके लिए अनुवादक को दोनों भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए| तब मूल रचना की मौलिकता और रचनाकार की निजता को बनाए रखना जरुरी है|
वर्तमान युग में अनुवाद लोगों के लिए अनिवार्य अंग बना है| विश्व में मन की भूख को संतुष्ट करने के लिए ज्ञान और भाषानुभूतियों के आदान-प्रदान की आवश्यकता है| विश्व में देश की भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान, विज्ञान, साहित्य एवं कला इत्यादि भंडार को दूसरे देश की भाषाओं में अनूदित करके उपलब्ध किया जाता है| इस प्रकार देश के अनेक भागों की भाषाओं में प्राप्त ज्ञान के साधन सामग्री को अन्य अनेक भाषाओं में उपलब्ध करना अनुवाद के माध्यम से संभव है|
निष्कर्षत: कहा जाता है कि अनुवाद का उद्देश्य स्त्रोत भाषा के भाव को, विचार को, आशय को, दूसरी भाषा याने लक्ष्य भाषा में यथा संभव अभिव्यक्त करने के लिए मूल भाव को चोट न पहुँचाते हुए उसे सही सलामत सुनिश्चित करना ही अनुवाद होता है|
संदर्भ ग्रंथ-
- साहित्य सौरभ – संपा. हिंदी अध्ययन मंडल, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, पुणे परिदृश्य प्रकाशन मुंबई, प्रथम संस्करण – 2019, पृष्ठ क्र.166
- वही, पृष्ठ क्र.165
- वही, पृष्ठ क्र.167
- वही, पृष्ठ क्र.166
- वही, पृष्ठ क्र.164
- वही, पृष्ठ क्र.164
- वही, पृष्ठ क्र.164
- वही, पृष्ठ क्र.164
- वही, पृष्ठ क्र.168
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Last Updated on March 22, 2021 by srijanaustralia