न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

6 मैपलटन वे, टारनेट, विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from 6 Mapleton Way, Tarneit, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : मख़दूम मुही-उद-दीन

Spread the love
image_pdfimage_print

तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : मख़दूम मुही-उद-दीन

डॉ. वसीम अनवर

असिस्टेण्ट प्रोफेसर

उर्दू और फ़ारसी विभाग

डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
wsmnwr@gmail.com, 09301316075

ग़ज़ल इशारे किनाए, तशबीह वा इस्तआरे की ज़बान में कही जाती है। ग़ज़ल का शायर अपनी बात रम्ज़-ओ-ईमा के पर्दे में कहता है और यही उस का फ़न्नी हुस्न है। तरक़्क़ी पसंदों का मक़सद ये था कि ग़ज़ल बिलवासता उस्लूब में ना कही जाये, और इस में ज़िंदगी के मसाइल और ज़माने के हालात को बराह-ए-रास्त मौज़ू बनाया जाये। ये बात ग़ज़ल के फ़न में बहुत मुश्किल थी। लिहाज़ा ग़ज़ल से इन्हिराफ़ कर के उन्होंने नज़्म को अपनाने पर ज़ोर दिया। क्योंकि नज़्म में बराह-ए-रास्त उस्लूब अपनाया जा सकता था। ग़ज़ल से मुन्हरिफ़ तरक़्क़ी-पसंद शौअरा में मख़दूम सर-ए-फेह्रिस्त हैं।
उर्दू के जिन तरक़्क़ी-पसंद शौअरा को आलमी शौहरत-ओ-मक़बूलियत नसीब हुई उनमें फ़ैज़ के साथ मख़दूम का नाम भी लिया जाता है। मख़दूम की शायरी का आग़ाज़ तहरीक की इब्तिदा से पहले हो चुका था, लेकिन शौहरत तहरीक में शमूलीयत के बाद हासिल हुई। मख़दूम बुनियादी तौर पर रूमानी शायर हैं, उनकी पूरी शायरी में यही रंग ग़ालिब है। मख़दूम के लहजे में ताज़गी और शादाबी का एहसास होता है। उनके मिज़ाज में नग़्मगी साफ़ नज़र आती है। उन्होंने रूमानी रिवायात से कभी इन्हिराफ़ नहीं किया और अपनी शायरी को रूमान और हक़ीक़त का संगम बना दिया। इन्होंने शऊरी तौर पर नज़्म को अपने इज़हार का ज़रीया बनाया। उनके तआरुफ़ मैं साहिल अहमद लिखते हैं:
”मख़दूम मुही-उद-दीन इश्तिराकी फिक्रो आमाल के शायर हैं उन्होंने सियासी-ओ-समाजी मसाइल को मौज़ू-ए-सुख़न बनाया है और ग़ुर्बत-ओ-अफ़्लास की इन कड़वी कसावटों को चखने और चखाने का हौसला रखते हैं। सरमाया दाराना निज़ाम के मुख़ालिफ़ और आज़ादी-ए-फिक्र-ओ-ख़्याल के हामी हैं।” (1)
मख़दूम मुही-उद-दीन मख़सूस तौर पर प्रोलतारी तबक़े के शायर थे। मख़दूम की शायरी की इब्तिदा 1933 में तालिब-ए-इलमी के ज़माने में हुई। उनका शेअरी सफ़र 35 साला अरसे पर मुहीत है। मख़दूम एक ज़ूदगो शायर नहीं थे। उनके तीन शैअरी मजमुए शायए हुए :
(1)       सुर्ख़ सवेरा,1944
(2)       गुल-ए-तर,1961
(3)       बिसात-ए-रक़्स,1966
मख़दूम मुही-उद-दीन की शायरी इर्तिक़ाई मदारिज तय करती रही और उनका रंग-ए-सुख़न बदलता चला गया। अब इस सिलसिले में मख़दूम मुही-उद-दीन लिखते हैं:
”शायर  बाहैसियत फ़र्द मुआशरा हक़ीक़तों से मुत्सादिम और मुतास्सिर होता रहता है। फिर वो दिल की जज़्बाती दुनिया की ख़ल्वतों में चला जाता है और रुहानी करब-ओ-इज़्तिराब की भट्टी में तप्ता है।“(2)
मख़दूम की शायरी को तीन मुख़्तलिफ़ अदवार में तक़सीम किया जा सकता है:
(1)       पहला दौर – 1933 (इब्तिदा) से 1947 तक
(2)       दूसरा दौर – 1947 से 1959 तक
(3)       तीसरा दौर – 1959 से 1969 (वफ़ात) तक
पहले दौर की शायरी ठेठ तरक़्क़ी-पसंद शायरी है, ये शायरी रूमानी, सियासी, समाजी, इश्तिराकी, इन्क़िलाबी, हंगामी और अवामी शायरी से इबारत है। जिसमें जोश, वलवला और बुलंद आहंगी है। बक़ौल मुहम्मद हसन वो नज़्मों से ज़्यादा तरानों के शायर बन गए।
दूसरे दौर की शायरी में तवील ख़ामोशी के साथ ख़ुलूस, सदाक़त और ख़ुद-एतिमादी का जज़्बा कारफ़र्मा है
तीसरे दौर की शायरी में असरी आगही, इदराक और पुख़्ता शऊर के साथ साथ लहजे में नरमी और ठंडक है
मख़दूम की शायरी के पहले और दूसरे दौर में सिर्फ हमें नज़्में ही मिलती हैं।
तीसरे दौर के आग़ाज़ से यानी 1959 से मख़दूम ने ग़ज़ल कहना शुरू किया। मख़दूम की पहली ग़ज़ल जो 1959 में मुंबई में एक हिंद-ओ-पाक अज़ीमुश्शान तरही मुशायरा में पढ़ी गई, दो शेअर मुलाहिज़ा हों:
सीमाब-वशी, तिश्ना-लबी, बाख़बरी है
इस दश्त में गर रख़्त-ए-सफ़र है तो यही है
धड़का है दिल-ए-ज़ार तिरे ज़िक्र से पहले
जब भी किसी महफ़िल में तिरी बात चली है
मख़दूम के कलाम में नज़्मों की तादाद ज़्यादा है। ग़ज़लें सिर्फ़ 21 हैं। लेकिन उनका शायराना मुक़ाम-ओ-मर्तबा मुतय्यन करने में ग़ज़लों का अहम हिस्सा है। मख़दूम ने अपने आप को कम्यूनिस्ट पार्टी की सरगर्मीयों और अवामी सियासत के लिए वक़्फ़ कर रखा था। जिस वजह से उन्हें शायरी के लिए वक़्त ही नहीं मिलता था। जज़्बात जब बहुत ज़्यादा शिद्दत इख़्तियार करते तो शैअर अपने आपको लिखवाने के लिए शायर को मजबूर करता। इन्हीं ख़्यालात का ज़िक्र उन्होंने गुल-ए-तर के पेश लफ़्ज़ में किया है:
”गुल-ए-तर की नज़्में, ग़ज़लें इंतिहाई मस्रूफ़ियतों में लिखी गई हैं। यूं महसूस होता है कि मैं लिखने पर मजबूर किया जा रहा हूँ। समाजी तक़ाज़े पुर-असरार तरीक़े पर शैअर लिखवाते रहे हैं।“(3)
मख़दूम बुनियादी तौर पर नज़्म के शायर हैं, और तरक़्क़ी-पसंद तहरीक के मंशूर के मुताबिक़ एक ज़माने तक ग़ज़ल से इन्हिराफ़ भी करते रहे। जब ग़ज़ल की मुख़ालिफ़त गए ज़माने की बात हो गई तब मख़दूम ने इस तरफ़ रुख किया। मख़दूम के सामने फ़िराक़, मजरूह, जज़बी और फ़ैज़ की तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़ल के कामयाब नमूने मौजूद थे। मख़दूम की ग़ज़लिया शायरी में वही खूबियां पाई जाती हैं जो उनकी नज़्मिया शायरी में मौजूद हैं। जब कोई नज़्म निगार शायर ग़ज़ल कहता है तो ख़ारजियत ग़ालिब आ जाती है, लेकिन मख़दूम के यहां ऐसा नहीं है। क्यों कि मख़दूम ग़ज़ल के फ़न से बख़ूबी वाक़िफ़ थे और उनकी ग़ज़ल एक पुख़्ता शऊर की शायरी है। मख़दूम का ज़्यादा-तर वक़्त अवाम के साथ गुज़रता था। उनकी मुआशी, सियासी, समाजी ज़िंदगी से मख़दूम मुतास्सिर थे उन्हीं हालात और तजुर्बात को वो अपनी शायरी में जगह देते रहे। बाक़ौल डा. राज बहादुर गौड़
”…………वो अवाम के मसरूफ़ क़दमों से क़दम मिला कर चलते हैं उनकी लड़ाईयों में शरीक रहते हैं। और फिर इन ही तजरबों को अवाम के अरमानों को शेअर के क़ालिब में ढाल कर पेश कर देते हैं।“(4)
कमीयूनिसट पार्टी से वाबस्तगी के बावजूद मख़दूम की सियासी ज़िंदगी और अदबी ज़िंदगी में एक हद तक तज़ाद देखा जा सकता है। ख़्वाह, वो अपनी ज़िंदगी में जितने बड़े इन्क़िलाबी भी रहे हों, लेकिन बहैसियत शायर उन पर हमेशा रूमानियत ग़ालिब नज़र आती है। रूमानियत उन की तबीयत का अहम अंसर है, वो ज़िंदगी की तल्ख़ियों का सामना एक हस्सास शायर की तरह करते हैं। मख़दूम की ग़ज़ल में रिवायती और क्लासिकी अंदाज़ के बजाय रूमान की चाशनी, तग़ज़्ज़ुल और सरशारी की कैफ़ियात वाज़ह दिखाई देती हैं:
कमान-ए-अबरुए ख़ूबाँ का बांकपन है ग़ज़ल
तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीद-ए-यार करें
मख़दूम ने क्लासिकी रिवायत और तरक़्क़ी-पसंद शायरी को मिलाने की कोशिश की और उर्दू ग़ज़ल को एक नई पहचान दी। मख़दूम मुही-उद-दीन ने उर्दू शायरी की रिवायत से इस्तिफ़ादा किया है। उनकी ग़ज़ल में उर्दू की रिवायती ग़ज़ल का लब-ओ-लहजा और आहंग मिलता है। मख़दूम फ़न्नी एतबार से रिवायात के पाबंद नज़र आते हैं। उनकी ग़ज़ल की दाख़लियत, लफ़्ज़यात का सरमाया, तराकीब, तशबीहात और इस्तिआरात वग़ैरह का ताल्लुक़ उर्दू ग़ज़ल की क्लासिकी रिवायात से है। ग़ज़ल में इन्होंने जो ज़बान इस्तिमाल की है वो अगरचह रिवायती ग़ज़ल से माख़ूज़ है लेकिन फ़िक्र-ओ-उस्लूब की ताज़गी उसे जिद्दत-ओ-नुदरत अता करती है। मख़दूम शायरों में से ग़ालिब, अमीर मीनाई, इक़बाल, अज़मत अल्लाह ख़ां से इंतिहाई मुतास्सिर थे। मख़दूम की रिवायत पसंदी के ताल्लुक़ से शम्स-उर-रहमान फ़ारूक़ी लिखते हैं:
”मख़दूम की ग़ज़ल उनके वतन की क़दीम सनअतों की तरह नाज़ुक और तनासुब में दरुस्त होती है। दूसरे अल्फ़ाज़ में मख़दूम की ग़ज़ल तरक़्क़ी-पसंद होते हुए भी उर्दू ग़ज़ल की उस असल और सच्ची रिवायत की तौसीअ है जिसे सौदा ने शुरू किया था।“(5)
मख़दूम की ग़ज़लें हँसती मुस्कुराती हुई नज़र आती हैं। मौसीक़ी और ग़िनाइयत के साथ उनमें जज़्बात की सदाक़त और ख़ुलूस पाया जाता है। उनकी ग़ज़लों में सेहतमंद इश्क़ की ताज़गी और रजाईयत-ओ-सरमस्ती हाफ़िज़ शीराज़ी की याद दिलाती है:
मंज़िलें इश्क़ की आसां हुईं चलते चलते
और चमका तिरा नक़्श कफ़-ए-पा आख़िर-ए-शब
मख़दूम की शायरी में ग़िनाइयत और मौसीक़ियत अपनी दिल-कशी रखती है। उनके यहां मुतरन्निम बहरों का इंतिख़ाब, मिसरों में लफ़्ज़ी-ओ-तख़लीक़ी ज़बान का एहतिमाम और रदीफ़-ओ-क़्वाफ़ी के मौज़ूं तरीन इंतिख़ाब से अशआर में नग़्मगी और तरन्नुम पैदा हो गया है। मख़दूम की ग़ज़लों की मौसीक़ियत, ग़िनाइयत, लताफ़त, शीरीनी और बेक़रारी पढ़ने वाले पर-वज्द तारी कर देती है
फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बरात फूलों की
ये महकती हुई ग़ज़ल मख़दूम
जैसे सहरा में रात फूलों की
मख़दूम बुलंद हौसला इन्सान थे। उनके किरदार में रिवायत-ओ-ज़हनी गु़लामी के ख़िलाफ़ वो बेपनाह जज़्बा मौजूद था कि इस से उनकी फ़ित्रत और फ़न में तबाज़ादगी, बेसाख़तगी और बरजस्तगी के अनासिर दर आए हैं। मख़दूम ने ज़िंदगी-भर ग़म को हंसते हुए उठाया, हालात-ओ-हवादिस से लड़ते रहे। मख़दूम की शायरी का अहम अंसर हौसलामंदी है। मख़दूम की ज़िंदगी हिम्मत-ओ-हौसला से इबारत थी। ना मुसाइद और ना-गुफ़्ता बह हालात में भी अज़्म-ओ-हौसला और हिम्मत अफ़्ज़ाई उनके अशआर में ढल कर ख़ास किस्म की सहर अंगेज़ी पैदा कर देती है। उनकी ग़ज़लिया शायरी में ऐसे अशआर मिल जाते हैं:
उट्ठो कि फ़ुर्सत-ए-दीवानगी ग़नीमत है

क़फ़स को ले के उडें गुल को हमकिनार करें
कोह-ए-ग़म और गिरां और गिरां और गिरां
गुम ज़दो, तेशे को चमकाओ कि कुछ रात कटे
मख़दूम की शख़्सियत की ग़ैरमामूली तवानाई उम्मीद, हौसला और आरज़ू मंदी हैं। ज़िंदगी के सख़्त तरीन हालात में भी उनकी शायरी में नाउम्मीदी जगह नहीं पाती। वो उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते हैं। ये हौसला, उम्मीद और आरज़ूमंदी उनकी शायरी का क़वी अंसर है। मख़दूम मुही-उद-दीन ने उर्दू ग़ज़ल को एक नया रुख़ दिया। मख़दूम की ग़ज़ल रिवायती ग़ज़ल और जदीद ग़ज़ल से मुख़्तलिफ़ है। अक्सर ग़ज़लें मुसलसल हैं। अगर इन ग़ज़लों को उन्वान दे दिए जाएं तो ये पूरी तरह नज़्में बन जाती हैं। उनमें जज़्बा और ख़्याल यकजा हो गए हैं। इन मुसलसल ग़ज़लों में इन्क़िलाबी और रूमानी लब-ओ-लहजा का ख़ूबसूरत इमतिज़ाज पाया जाता है। गुम-ए-जानां और ग़म-ए-दौरां के साथ ख़ालिस इश्क़िया अशआर और फ़िक्र अंगेज़ और तहदार अशआर भी मौजूद हैं:
सुनाती फिरती हैं आँखें कहानियां क्या-क्या
अब और क्या कहें किस-किस को सोगवार करें
दिलों की तिश्नगी जितनी, दिलों का ग़म जितना
इसी क़दर है ज़माने में हुस्न-ए-यार की बात
सब वस्वसे हैं गर्द-ए-रह-ए-कारवां के साथ
आगे है मशअलों का धुआँ देखते चलें
मख़दूम की ग़ज़लों में नए अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब कम ही नज़र आते हैं, लेकिन पैराए इज़हार ख़ुद इनका वज़ा करदा है। अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब, तशबीहात-ओ-इस्तिआरात वग़ैरह का इस्तिमाल फ़ैज़ और मजरूह की तरह हुआ है। मख़दूम ने तशबीहात-ओ-इस्तिआरात वग़ैरह को असरी सियासी और मुआशरती नए मआनी-ओ-मफ़ाहीम का हामिल बनाया है। इस मुआमले में वो रिवायात की पाबंदी करते हुए नज़र आते हैं। मसलन तिश्ना-लबी, आहूए ख़ुशचश्म, सीमाब-वशी, सुहबत-ए-रुख़्सार, काकुल-ए-शब-रंग, गंज-ए-क़फ़स, दश्त-ए-अलम फ़िज़ा, शमीम-ए-पैरहन-ए-यार, कमान-ए-अबरुए ख़ूबाँ, शोला-रू, शोला-नवा, शाला-ए-नज़र, यार-ए-ग़मगुसार, सर चश्म-ए-वफ़ा, बज़्म-ए-शोला-रुख़ाँ, मीनाए ज़र फ़िशां, रक़्स गह-ए-गुल-रुख़ाँ, नक़्श-ए-कफ-ए-पा वग़ैरह।
तरक़्क़ी-पसंद शौअरा की आम रविश रही है कि वो ग़ज़ल में तशबीह-ओ-इस्तिआरे और अलामात के ज़रीये अवाम से ख़िताब करते हैं, मख़दूम के यहां भी इसी रविश को अपनाया गया है। मख़दूम ने अपने तख़लीक़ी जोहर से मुरव्वजा तराकीब राइज अल्फ़ाज़ और रिवायती तशबीहात-ओ-अलामात को ही इस्तिमाल करते हुए अपनी ग़ज़लियात में फ़न ग़ज़ल की आबरू को क़ायम रखा:
एक शहर में इक आहूए ख़ुशचश्म से हमको
कम-कम ही सही निस्बत-ए-पैमाना रही है
मख़दूम की शायरी उनकी शख़्सियत का आईना है, जो फ़िक्र-ओ-ख़्याल और मौज़ूआत की वजह से मुतवज्जह करती है। मख़दूम की ग़ज़लों के मुतालआ से उनके मिज़ाज, फ़िक्र, नुक़ता-ए-नज़र और तसव्वुरात को समझा जा सकता है। उनकी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा कम्यूनिस्ट पार्टी की सरगर्मीयों और अवामी सियासत में गुज़रा। मख़दूम चुंकि अपनी अमली ज़िंदगी में मुजाहिद-ए-आज़ादी रहे हैं, इसलिए उनकी ग़ज़लों में जज़्बे की सदाक़त, अज़्म-ओ-हौसला की बुलंदी दिखाई देती है:
इस गुज़रगाह में इस दश्त में अय जज़्बा-ए-शौक़
जुज़ तेरे कौन यहां आबला-पा होता है
दराज़ है शब-ए-ग़म सोज़-ओ-साज़ साथ रहे
मुसाफ़िरो मए-ओ-मीना गुदाज़ साथ रहे
क़दम क़दम पे अंधेरों का सामना है
सफ़र कठिन है, दम-ए-शोला साज़ साथ रहे
मख़दूम की अवामी शायरी में कहीं कहीं रास्त इज़हार से भी काम लिया गया है। फ़िर्क़ावाराना फ़सादात के पस-ए-मंज़र में इस शेअर को मुलाहिज़ा कीजिए:
दीप जलते हैं दिलों में कि चिता जलती है
अब की दीवाली में देखेंगे कि क्या होता है
मख़दूम ने अपने गर्द-ओ-पेश के हालात और मसाइल को अपने कई अशआर में बड़े ख़ुलूस और शिद्दत-ए-तास्सुर के साथ पेश किया है। माहौल की बे-हिसी, ज़िंदगी में हरकत और अमल की कमी और जज़्बा ईसार-ओ-क़ुर्बानी के फ़ुक़दान को इन्होंने अपने ख़ूबसूरत पैराया-ए-इज़हार में बयान किया है:
ना किसी आह की आवाज़ ना ज़ंजीर का शोर
आज क्या हो गया ज़िंदाँ में कि ज़िंदाँ चुप है
गुल है क़ंदील-ए-हरम, गुल हैं कलीसा के चिराग़
सुए पैमाना बढ़े, दस्त-ए-दुआ आख़िर-ए-शब
सियासी, समाजी और असरी मसाइल के बयान के साथ साथ इन्होंने हुस्न-ओ-इशक़ के तजुर्बात के अछूते पहलूओं को भी पेश किया है। उमूमी इश्क़िया तजुर्बात के बयान में नुदरत, नया अंदाज़ और उस्लूब की ताज़गी ने एक नई बात पैदा कर दी है:
रात-भर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म को लू थरथराती रही रात-भर
याद के चांद दिल में उतरते रहे
चांदगी जगमगाती रही रात-भर
रुहानी करब-ओ-इज़्तिराब का इज़हार मख़दूम की ग़ज़लों में मौजूद है, जो बयान के बजाय एहसास से इबारत है। जिसके बग़ैर मख़दूम की तफ़हीम मुश्किल है:
इसी चमन में चलें, जश्न-ए-याद-ए-यार करें
दिलों को चाक, गिरीबाँ को तार-तार करें
फिर बुला भेजा है फूलों ने गुलिस्तानों से
तुम भी आ जाओ कि बातें करें पैमानों से
बहैसीयत मजमूई मख़दूम मुही-उद-दीन तरक़्क़ी-पसंद उर्दू शायरी में अपनी ग़ज़लों के हवाले से भी एहमीयत रखते हैं। अगरचह इन्होंने बहुत कम ग़ज़लें लिखी हैं लेकिन उनका ये क़लील सरमाया भी कैफ़ियत और क़दर-ओ-क़ीमत के एतबार से उर्दू अदब में कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ इक्कीस (21) ग़ज़लें कहने वाला शायर कभी उर्दू अदब में मोतबर नहीं रहा। अगर वो ग़ज़ल पर और ज़्यादा तवज्जह देते तो ग़ज़ल के सरमाये में मज़ीद काबिल-ए-क़दर इज़ाफे़ हो सकते थे। इस के बावजूद मख़दूम बहैसीयत ग़ज़लगो अपने किसी हमअसर्  शायर से पीछे नहीं हैं। चंद अहम तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़लगो शौअरा से आगे नज़र आते हैं। मख़दूम की शख़्सियत इन हमागीर पहलूओं का अहाता करती है जिनकी बिना पर मख़दूम ने अपनी समाजी-ओ-सियासी ज़िंदगी का आग़ाज़ किया था। मख़दूम ना सिर्फ एक बड़े शायर थे बल्कि एक बुलंद हौसला इन्सान भी थे। उनकी शख़्सियत में रिवायत-ओ-ज़हनी गु़लामी के ख़िलाफ़ बेपनाह जज़्बा था जो उनकी शख़्सियत और फ़न की तवानाई है। मख़दूम की ग़ज़ल पुख़्ता शऊर-ओ-इदराक की शायरी है। चूँकि सारी ग़ज़लें कुछ ही अर्से में कही गई हैं, इस लिए तक़रीबन एक ही मुक़ाम पर नज़र आती हैं। मख़दूम तरक़्क़ी-पसंद शायरी के एक अहम सतून की हैसियत रखते हैं। उनकी तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़लिया शायरी नाक़ाबिल फ़रामोश है। उर्दू शायरी में ग़ज़लगो शायर की हैसियत से उनका नाम हमेशा ज़िंदा रहेगा:
हयात ले के चलो कायनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो
इशक़ के शोले को भड़काऊ कि कुछ रात कटे
दिल के अँगारे को दहकाओ कि कुछ रात कटे

٭٭٭

 

हवाशी

  1. जंग-ए-आज़ादी में उर्दू शायरी का हिस्सा – साहिल अहमद,स.156
  2. गुल-ए-तर – मख़दूम मुही-उद-दीन – पढ़ने वालों से,स.5
  3. गुल-ए-तर – मख़दूम मुही-उद-दीन – पढ़ने वालों से,स.6
  4. बिसात-ए-रक़्स – मख़दूम मुही-उद-दीन – राज बहादुर गौड़,स.22
  5. मख़दूम मुही उद्दीन की शायरी का तन्क़ीदी जायज़ा – डा. मंसूर उमर, स.140

٭٭٭
Dr. Waseem Anwar
Assistant Professor
Department of Urdu & Persian
Dr. H. S. Gour University, Sagar M. P. 470003
wsmnwr@gmail.com, 09301316075

Last Updated on December 17, 2020 by wsmnwr

Facebook
Twitter
LinkedIn

More to explorer

रिहाई कि इमरती

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱रिहाई कि इमरती – स्वतंत्रता किसी भी प्राणि का जन्म सिद्ध अधिकार है जिसे

हिंदी

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱   अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस – अंतर्मन अभिव्यक्ति है हृदय भाव कि धारा हैपल

Leave a Comment

error: Content is protected !!