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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

6 मैपलटन वे, टारनेट, विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from 6 Mapleton Way, Tarneit, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : जाँ‌‌ निसार अख़्तर

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तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : जाँ‌‌ निसार अख़्तर

डॉ. वसीम अनवर

असिस्टेण्ट प्रोफेसर

उर्दू और फ़ारसी विभाग

डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
wsmnwr@gmail.com, 09301316075

ग़ज़ल उर्दू शायरी की मक़बूल तरीन सिन्फ़ सुख़न है। ग़ज़ल का फ़न ईजाज़-ओ-इख़्तिसार रम्ज़-ओ-किनाया, मजाज़-ओ-तमसील, इस्तिआरा-ओ-तशबीहा और आहंग-ओ-नग़्मगी से मुज़य्यन होता है। ग़ज़ल में शुरू से ही मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत‌-ए-ज़िंदगी, समाजी मुआशरती ख़्यालात, तारीख़ी वाक़ियात-ओ-नज़रियात की तर्जुमानी होती रही है। हर तरह के ख़्यालात की अक्कासी दीगर अस्नाफ़ सुख़न की बनिसबत ग़ज़ल में ज़्यादा मुअस्सिर और जामे तरीक़े से की जा सकती है। इस तरह ग़ज़ल का हर शेअर अपने अंदर एक जहान-ए-मानी रखता है।
ग़ज़ल के मुताल्लिक़ नक़्क़ादों के मुख़्तलिफ़ नज़रिए रहे हैं। फ़िराक़ के नज़दीक ग़ज़ल इंतिहाओं का सिलसिला है। प्रो. रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने ग़ज़ल को उर्दू शायरी की आबरू क़रार दिया। ख़्वाजा अहमद फ़ारूक़ी ग़ज़ल को महबूब तरीन सिन्फ़-ए-सुख़न बताते हैं।
ग़ज़ल की इस्लाह का रुजहान हाली से शुरू हुआ लेकिन सिर्फ मौज़ूआत की हद तक रहा। इस के बाद अज़मत अल्लाह ख़ां, वहीद-उद-दीन सलीम, जोश मलीहाबादी, कलीम-उद-दीन अहमद वग़ैरह के नाम आते हैं जो ग़ज़ल की हय्यत और साख़्त ही के मुख़ालिफ़ थे। इन हज़रात के नज़दीक ग़ज़ल बेवक़्त की रागनी, नीम वहशयाना शायरी या रब्त-ओ-तसलसुल से आरी कलाम है। अज़मत अल्लाह ख़ां का तो ये ख़्याल था कि उर्दू शायरी की तरक़्क़ी सिर्फ तभी हो सकती है जब ग़ज़ल की गर्दन बे-तकल्लुफ़ मार दी जाये। ये रद्द-ए-अमल इंतिहा पसंदाना था। ग़ज़ल के सिलसिले में प्रो. आल-ए-अहमद सुरूर की राय बड़ी मुतवाज़िन है:
”ग़ज़ल की मक़बूलियत से कुछ लोग इस हक़ीक़त से चश्मपोशी करने लगे हैं कि ग़ज़ल सारी शायरी नहीं है। और ना ग़ज़ल को उर्दू शायरी की आबरू कह कर दिल ख़ुश कर लेना मुनासिब है।“(1)
इब्तिदाई दौर में तरक़्क़ी-पसंद शौअरा ने ग़ज़ल की तरफ़ कोई ख़ास तवज्जह नहीं दी और जब उसे अपनाया तो उर्दू ग़ज़ल की आम रिवायत से इज्तिनाब की कोशिश करते हुए। अब उस के रिवायती और बुनियादी किरदार आशिक़-ओ-माशूक़ और रक़ीब माअनवी तौर पर बदले हुए थे और इबहाम की बनिसबत वज़ाहत ज़रूरी हो गई थी। तरक़्क़ी-पसंद शायर के लिए तय-शुदा नताइज को मंज़ूम करना लाज़िमी था। लिहाज़ा इस में मक़सद को अव्वलीयत और फ़न को सानवीयत हासिल रही जिसकी वजह से अक्सर तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़ल ख़िताबत और ब्यानिया बन कर रह गई।
इस के बावजूद तरक़्क़ी-पसंद शौअरा ने अच्छी ग़ज़लें कहीं हैं। इसी दौर में फ़ैज़ की ग़ज़लें उनकी नज़्मों से ज़्यादा मक़बूल हुईं। जज़बी, मजाज़, मजरूह, सरदार जाफ़री,,वामिक़, मख़दूम, जाँ‌‌ निसार अख़्तर, साहिर, ताबां, परवेज़ शाहिदी, अख़्तर अंसारी वग़ैरह ने तरक़्क़ी-पसंद ख़्यालात की अक्कासी अपनी ग़ज़लों में की है।
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ग़ज़ल की एहमीयत वा इफ़ादियत का एतराफ़ करते हुए रक़्म तराज़ हैं:
“ फ़न अदब और समाज अपने इर्तिक़ा के लिए नई नसल से नए ख़ून का तक़ाज़ा करते हैं। ग़ज़ल जो हमारे अदब की शानदार रिवायत है और जिसके बग़ैर उर्दू शायरी का तसव्वुर मुम्किन नहीं, जिसका नाम आते ही हमारी सदियों की तहज़ीब सिमट कर हमारे सामने आने लगती है, हमारी जज़्बाती और वजदानी कैफ़ियात, हमारी मुआशरत, तमद्दुन और अख़्लाक़ की हज़ारहा झलकियाँ अपने चेहरे से निक़ाब सरकाती नज़र आती हैं। एक अज़ीमुश्शान विरसे के तौर पर नई नसल तक पहुंची है।“ (2)

जाँ‌‌ निसार अख़्तर को शायरी का शौक़-ओ-ज़ौक़ विरसे में मिला था। उनकी इब्तिदाई ग़ज़लिया शायरी क़दीम रंग-ओ-आहंग लिए हुए थी, जो इन्होंने तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से वाबस्तगी के बाद क़लमज़द कर दी। यही वजह है कि उनके पहले मजमूआ कलाम सलासिल मैं कोई ग़ज़ल शामिल नहीं है। दूसरे मजमूआ-ए-कलाम तार-ए-गिरेबाँ मैं तीन ग़ज़लें, जावेदाँ मैं तेराह ग़ज़लें और नज़र-ए-बुताँ मैं सात ग़ज़लें शामिल की गई हैं।
ग़ज़लगोई का फ़न और हिन्दुस्तानी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से लगाओ जाँ‌‌ निसार अख़्तर के ख़ून में शामिल था। वो ग़ज़ल की तरक़्क़ी को निहायत ज़रूरी ख़्याल करते थे। जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल के मुताल्लिक़ इज़हार-ए-ख़याल करते हुए कहते हैं:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छिपा दी जाये

जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने अपनी शायरी के आख़री दौर में फिर ग़ज़ल की तरफ़ तवज्जह करते बहुत सी ग़ज़लें कही। इन ग़ज़लों का तर्ज़ बयान क़ारी को मुतवज्जह करता है। क़दीम तक़ाज़ों और असरी रुजहानात का हसीन इम्तेज़ाज, मुतवाज़िन लहजा, अंदाज़ बयान की नुद्रत, तराकीब की हलावत, शगुफ़्तगी, सदाक़त, सादगी, रवानी और नग़्मगी के साथ असरी मसाइल का बयान ने जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल को ख़ारिजी और दाख़िली दोनों तरह का हुस्न अता किया है:
ये किसी ग़रीब दिल से ग़म-ए-इश्क़ का इशारा
मिरी ज़िंदगी को मुझ पर ये सितम भी है गवारा

ख़ुद बख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह
सलासत अल्फ़ाज़ और सादगी बयान से मुहब्बत की ख़ास कैफ़ियत बड़ी ख़ूबी के साथ अशआर की शक्ल इख़्तियार कर लेती है:
सुबह की आस किसी लम्हा जो घट जाती है
ज़िंदगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है

शाम ढलते ही तिरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इश्क़िया शायरी एक सच्चे दिल की पुकार है, जो दिलों पर असर करती है। मुहब्बत का करब और हिज्र की बेक़रारी शायर को बहुत अज़ीज़ है और वो उसे क़ायम रखने की कोशिश करता है:
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है

और क्या इस से ज़्यादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
सेहतमंद क्लासिकी रिवायतों से इस्तिफ़ादा और फ़न का रचाओ जाँ‌‌ निसार अख़्तर के कलाम की एक अहम ख़ूबी है। उनके यहां मअनी आफ़रीनी के साथ साथ कैफ़ीयत, हलावत और वालेहाना-पन बदर्जा‌-ए-इतम मौजूद है। मीर तक़ी मीर का रंग उन्हें ख़ासतौर पर बहुत पसंद है:
इश्क़ में क्या नुक़्सान नफ़ा है हमको क्या समझाते हो
हमने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया

आज वो क्या सर-ए-अंजुमन आ गए
राज़ दिल का सर-ए-अंजुमन आ गया

वो चश्मा हुस्न नौजवानी
अंगड़ाई जो ले फ़िज़ा नहाए

अख़्तर की ग़ज़लों में रूमानियत, क़ौमीयत, अज़्म-ए-जवाँ, ख़ुश उम्मीदी और क़ौमी तहज़ीब की आमेज़िश पाई जाती है। जिसकी वजह से उनके कलाम में नामुरादी और मायूसी के बजाय हौसला, उम्मीद, शादकामी और मसर्रत के जज़्बात-ओ-कैफ़ियात वाज़िह नज़र आते हैं:
समुंदर को यक़ीं आएगा किस दिन
कि साहिल से भी उठ सकते हैं तूफ़ाँ

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िंदगी शम्मा लिए दर पे खड़ी है यारो

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ कहने के लिए बात बड़ी है यारो
अख़्तर की शायरी में इन्सान और ज़िंदगी से मुहब्बत की तलक़ीन मिलती है। मगर जब वो अपने इन ख़्यालात और तसव्वुरात को अपनी शख़्सियत में जज़्ब कर के शेअरी पैकर में ढालते हैं तो शेअर की तहदारी में इज़ाफ़ा हो जाता है और ज़िंदगी की जद्-ओ-जहद फ़ित्री तौर पर सामने आती है:
ज़िंदगी ये तो नहीं तुझको सवारा ही ना हो
कुछ ना कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही ना हो

समझ सके तो समझ ज़िंदगी की उलझन को
सवाल इतने नहीं हैं जवाब जितने हैं

ज़िंदगी जिसको तिरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की शायरी में हक़ीक़त निगारी और हिन्दुस्तानी अनासिर की कसरत है। वो अपने वतन के फ़ित्री मनाज़िर, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन वग़ैरह का ज़िक्र निहायत पुरख़ुलूस लहजे में अहतराम के साथ करते हैं। उनके यहां इन्सान की सियासी आज़ादी का शऊर मौजूद है। लेकिन इस तरह के अशआर में फ़ित्री बुलंद आहंगी, ख़िताबत और रास्त अंदाज़ बयान के अनासिर आम तरक़्क़ी-पसंद शौअरा की तरह पाए जाते हैं:
कट सकी हैं अब तलक सोने की ज़ंजीरें कहाँ
आज हम आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अमन से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं निक़ाब जितने हैं

शर्म आती है कि इस शहर में हम हैं कि जहां
ना मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही ना हो
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने तरक़्क़ी-पसंद शायरी की आम रविश के मुताबिक़ क़दीम रिवायात से इन्हिराफ़ किया है। इश्क़-ओ-मुहब्बत और हिजर्-ओ-फ़िराक़ के मौज़ूआत में भी वो रिवायत के बजाय फ़ित्री और हक़ीक़ी तजुर्बे को एहमीयत देते हैं। उनका महबूब और इश्क़ मावराई नहीं फ़ित्री और इन्सानी है। इसलिए अख़्तर की ग़ज़ल हक़ीक़त और सदाक़त की हदूद से तजावुज़ नहीं करती:
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

मेरी ख़ामोशी पे जब तुम रो दिए हो बारहा
लाओगे किस दिल में मेरे आँसूओं की ताब तुम

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ साड़ी की दूकानों पर

दिल को छू जाती है यूं रात को आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही ना हो

हमसे भागा ना करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की शायरी का एक हिस्सा ऐसा है, जिसमें हिन्दी के आम-फहम अल्फ़ाज़ नगीनों की तरह नज़र आते हैं। हिन्दी अल्फ़ाज़ के इस्तिमाल से अख़्तर की शायरी में हिन्दी शायरी का रस और नई माअनवियत पैदा हो गई है:
एक तो नेना कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाये चमक कुछ और भी गहरे बादल में

उजड़ी उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िंदगी राम का बन बास लगे

तू कि बेहती हुई नदिया के समान
तुझ को देखूं तो मुझे प्यास लगे

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दोपट्टा फेक गई है धानों पर
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से वाबस्तगी के बाद नज़्म निगारी को अपनाया। लेकिन नज़्मों में उनका इन्फ़िरादी रंग मुश्किल से ही नज़र आता है। उनकी आवाज़ आम तरक़्क़ी-पसंद शायरी में गुम हो जाती है। मगर जब वक़फ़े के बाद इन्होंने उर्दू शायरी की आबरू यानी ग़ज़ल के गेसू सँवारे तो उनकी आवाज़ में तबदीली का एहसास होता है। इस तबदीली ने एक अजीब निखार और हुस्न पैदा कर दिया है। इसी दौरान वो अपने दिल की गहिराईयों में उतर कर ख़ुद को पाने में कामयाब नज़र आते हैं।
डाक्टर मुहम्मद हसन ने जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इस शायरी के बारे में लिखा है:
”……सबड़े ग़ैर मुतवक़्क़े अंदाज़ में जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने फिर नग़्मासराई शुरू कर दी और ताज्जुब ही है कि ही नग़्मासराई माज़ी का तसलसुल या पुरानी धुनों की तकरार ना थी। ऐसे निराले और शगुफ़्ता नग़्मों से इबारत थी कि बस जैसे अपने नग़्मों के मुक़द्दस आतिश ख़ानों की आग रोशन करे। जल जानेवाले मुर्ग़-ए-आतिश नवा ने दूसरा जन्म लिया हो।“(3)
जाँ‌‌ निसार अख़्तर के मिज़ाज और उनके ख़ास मौज़ूआत के बारे में अमीक़ हनफ़ी रक़म तराज़ हैं:
” जाँ‌‌ निसार अख़्तर का मिज़ाज हमारे बहुत से शोअरा की तरह क्लासिकी रिवायत और नई रूमानियत के इम्तिज़ाज से तशकील पाता है। महबूबा, उस का जिस्म, उस की क़ुर्बत, उस की ख़ुश-लिबासी और बे-लिबासी उनके शेअरी मुहर्रिकात में ख़ास एहमीयत रखते हैं। मनाज़िर-ए-फ़ित्रत और शहरी ज़िंदगी की चहल पहल और रौनक, ज़ायक़ा, नफ़रत, रंगीनी, चाश्नी, लम्स उनकी शायरी को इस का पैरहन ही नहीं जिस्म भी अता करता है।“(4)
बहैसीयत मजमूई जाँ‌‌ निसार अख़्तर की आख़री दौर की ग़ज़लें एक नए आहंग का पता देती हैं। उनकी ये शायरी अच्छे उस्लूब और सच्चे ख़्यालात का इम्तिज़ाज है। उनमें समाजी शऊर जज़्बात की गहराई, फ़न्नी बुलंदी, नग़्मगी, सदाक़त-ओ-ख़ुलूस और लताफ़त व सादगी मौजूद है। लिहाज़ा तरक़्क़ी-पसंद शोअरा में जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इन्फ़िरादियत से इन्कार नहीं किया जा सकता। बाक़ौल शमस-उर-रहमान फ़ारूक़ी:
”इस में शुबाह नहीं कि हमारे अह्द की शायरी में जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल अपनी मज़बूत इन्फ़िरादियत, शाइस्तगी, दरूँ बीनी और सिक्का बंद तसव्वुरात से बे-ख़ौफ़ हो कर शायराना इज़हार पुर इसरार की वजह से नुमायां है।“(5)
٭٭٭٭٭

हवाशी:

  1. पहचान और परख – आल-ए-अहमद सुरूर,स: 40
  2. ख़ेमा-ए-गुल अज़ मुहम्मद अली ताज – पेश लफ़्ज़ अज़ जाँ‌‌ निसार अख़्तर, स: 6
  3. मुआसिर अदब के पेश-रौ – डा. मुहम्मद हसन, स: 79
  4. फ़न और शख़्सियत – जाँ‌‌ निसार अख़्तर नंबर, स: 200-201
  5. फ़न और शख़्सियत – जाँ‌‌ निसार अख़्तर नंबर, स: 172

٭٭٭٭٭

Dr. Waseem Anwar
Assistant Professor
Department of Urdu & Persian
Dr. H. S. Gour University, Sagar M. P. 470003
wsmnwr@gmail.com, 09301316075

 

Last Updated on December 16, 2020 by wsmnwr

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