उस वक्त रुहें आजाद घूमा करती
कभी दरख्तों के कंधों पर बैठती
कभी तृणों के दलों पर
कभी चींटी के मुंह में
कभी सांप की कैंचुल में
लेकिन ना जाने क्यों, उन्हें
आदम बू पसन्द नहीं थी
उन्हें एतराज नहीं था
लोमड़ियों, खरगोशों, सुअरों से,
उल्लू की आँखें,
हाथी की सूंड,
सूअर की थूथन उन्हें
बेहद पसन्द थी
आदमी को पसन्द नहीं थी
उनकी लहरिया उड़ानें
उनका बेबाक खिलखिलाना
कौओं कबूतरों से बतियाना
आदमी ने कैद कर ली रूहें
नीन्द की गफलत में
कुछ इस तरह कि
जंगल से भगाये जाते जानवर
बाड़ों में कर लिए किए जाते,
अब रुहें कैद हैं अदमी में
बड़बड़ाती, लड़ती , झगड़तीं
रोती कराहती वे भूल चुकी है
लहराना,
आदमी भी अनजाने में कैद
रुहों की चीखों का
बधिर , अंध, भूल रहा है
अपनी जमीन पर चलना भी
Last Updated on January 20, 2021 by saxena.rati