न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

6 मैपलटन वे, टारनेट, विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from 6 Mapleton Way, Tarneit, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

महिला-दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कवितायें

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(महिला-दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कवितायें)

 

1

अब

तुम्हारे झूठे आश्वासन

मेरे घर के आँगन में फूल नहीं खिला सकते

चाँद नहीं उगा सकते

मेरे घर की दीवार की ईंट भी नहीं बन सकते

अब

तुम्हारे वो सपने

मुझे सतरंगी इंद्रधनुष नहीं दिखा सकते

जिसका न शुरू मालूम है न कोई अंत

अब

तुम मुझे काँच के बुत की तरह

अपने अंदर सजाकर तोड़ नहीं सकते

मैंने तुम्हारे अंदर के अँधेरों को

सूँघ लिया है

टटोल लिया है

उस सच को भी

अपनी सार्थकता को

अपने निजत्व को भी

जान लिया है अपने अर्थों को भी

मुझे पता है अब तुम नहीं लौटोगे

मुझे इस रूप में नहीं सहोगे

तुम्हें तो आदत है

सदियों से चीर हरण करने की

अग्नि परीक्षा लेते रहने की

खूँटे से बँधी मेमनी अब मैं नहीं

बहुत दिखा दिया तुमने

और देख लिया मैंने

मेरे हिस्से के सूरज को

अपनी हथेलियों की ओट से

छुपाए रखा तुमने

मैं तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में

खंडित इतिहास की कोई मूर्त्ति नहीं हूँ

नहीं चाहिए मुझे अपनी आँखों पर

तुम्हारा चश्मा

अब मैं अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाऊँगी

मैंने भी अब

सीख लिया है

शिव के धनुष को

तोड़ना

000

 

2

औरत को सब कुछ

एक साथ क्यों नहीं मिलता

किश्तों में ही मिलता है

जैसे, घर है तो छत नहीं

छत है तो द्वार नहीं

द्वार मिले तो सांकल नदारद

दिन को जीती है तो

रातें गायब

आसमां को जैसे ही देखे

तो जमीन गायब

माँ-बाप की इकलौती हो तो

सबका प्यार पाये

भाई आए तो प्यार फिर

किश्तों में बचा-खुचा पाये

वे आश्चर्यचकित है,

कि माँ की कोख तो एक है

फिर भी मैं परायी और

भाई उनका।

फिर बड़ी हो कर

पति मिल जाए तो

मायका दूर हो जाए

दोनों एक साथ क्यों नहीं मिल सकते

खुद के बच्चे हो

तो सब शिकायत भूल जाये

बहू आए तो बेटे छिन जाएँ

पति जाये, तो घर भी छिन जाये

सब कुछ स्थायी क्यों नहीं रहता

जीवन मिल जाये तो

इतिहास के छोटे टुकड़ों में बांटकर

भी दोबारा औरत का ही जन्म पाने की ख़्वाहिश

कि, इस जन्म में तो किश्तों मे जिया है

चलो अगले जन्म में ही सही शायद

वो घर हो, जहां छत,

द्वार और सांकल सभी एक साथ हो

000

 

3

तुम हमेशा से रखते रहे हो आसमानों की चाह

पर आज देख लो

उड़ानें हमारी अच्छी हैं__

 

तुम खुश रहते थे और हम ज़ाहिर करते रहे

पर आज देख लो

मुसकानें हमारी अच्छी हैं__

 

तुम हमेशा उसूलों की सिर्फ बातें करते रहे

पर आज देख लो

ज़िद हमारी भी अच्छी हैं__

 

तुम्हारे होंसले, बहस सिर्फ वक्ती होते रहे

पर आज देख लो

दलीले हमारी भी अच्छी हैं__

 

तुम्हारे शब्दों की अकड़ हमेशा ऐंठी ही रही

पर आज देख लो

जज़्बातों की स्याही हमारी अच्छी है__

 

तुम होगे बेहतर सिर्फ बाहर बाहर से ही

पर आज देख लो

अंदर बाहर पकड़ हमारी अच्छी है__

 

तुम सोचते हो खुद को कृष्ण हर युग में

पर आज देख लो

सुर और बांसुरी तो हमारी ही अच्छी है__

 

देर से ही सही पर मान तो लिया तुमने

इसीलिए तो आज

हर बात तुम्हारी भी अच्छी है__

000

 

4

 

सुनो

जा रहे हो तो जाओ

पर अपने यह निशां भी

साथ ले ही जाओ

जब दोबारा आओ

तो चाहे, फिर साथ ले लाना

नहीं रखने है मुझे अपने पास

यह करायेंगे मुझे फिर अहसास

मेरे अकेले होने का

पर मुझे जीना है

अकेली हूँ तो क्या

जीना आता है मुझे

लक्ष्मण रेखा के अर्थ जानती हूँ

माँ को बचपन से रामायण पढ़ते देखा है

मेरी रेखाओं को तुम

अपने सोच की रेखाएँ खींच कर

छोटा नहीं कर सकते

युग बदले, मै ईव से शक्ति बन गयी

तुम अभी तक अहम के आदिम अवस्था में ही हो

दोनों को एक जैसी सोच को रखने का

खामियाज़ा तो भुगतना तो पड़ेगा

000

 

5

मैं कमजोर थी

तुम्हारे हित में,

सिवाय चुप रहने के

और कुछ नहीं किया मैंने

अब अंतर के

आंदोलित ज्वालामुखी ने

मेरी भी सहनशीलता की

धज्जियाँ उड़ा दी

मैंने चाहा, कि मैं

तुमसे सिर्फ नफरत करूँ

मैं चुप रही

तुमने मेरी चुप को

अपने लिए सुविधाजनक मान लिया था

मैं खुराक के नाम पर सिर्फ

आग ही खाती रही थी,

तुम तो यह भी भूल गए थे कि

आदमी के भीतर भी

एक जंगल होता है

और, आत्मनिर्णय के

संकटापन्न क्षणों में

उग आते हैं मस्तिष्क में

नागफनी के काँटे,

हाथों में मजबूती से सध जाती है

निर्णय की कुल्हाड़ी

फिर अपने ही एकांत में

खोये एहसास की उखड़ी साँसों का शोर

जंगल का एक रास्ता

दिमाग से जुड़ जाता है

उन्ही कुछ ईमानदार क्षणों में

मैंने भी अंतिम निर्णय ले लिया है

मेरी चुप्पी में कहीं एक दरार सी पड़ गयी है

तेरे-मेरे रिश्ते का सन्नाटा

आज टूट कर बिखर गया है

000

 

6

कल ही तो ऊपर सूर्य ग्रहण लगा था

आज नीचे औरत के आकाश का सूर्य ग्रहण हट गया

अब दिखेंगी पगडंडियाँ पर्दे के पीछे वाली आँखों को भी

अमावस जैसे हर बुर्के के माथे पे उगेंगे छोटे नन्हें चाँद

पहला पड़ाव है यह तो

मंज़िलें बच कर कहाँ जाएंगी?

अब तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा…..

तुम्हारे हित में,

सिवाय चुप रहने के

और कुछ नहीं किया उसने

तुमने उसकी चुप को

अपने लिए सुविधाजनक मान लिया

उसने तुम्हें स्वीकारा था

अन्तरमन से चाहा था

तुम्हारे दिखाये सपनों के

इन्द्रधनुषी झूले से झूली थी

तुम्हारी उंगली पकड़

तुम्हारी ही बनाई सड़क पर

चलने लगी थी वो

तुम बन गए थे

उसकी पूरी दुनिया

और तुमने क्या किया….

बाज़ार में चलते-चलते ही

थोड़ा सा तुमसे आगे क्या निकली

तुमने मर्द होने के मद में

इतनी सी बात पर

फिर उन तीन लफ्जों का तीर छोड़ दिया

तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा…..

तुम अपने छोर

अपनी दुनिया के खूँटों पर

अटका कर आते रहे

और वो ढकी औरत 

अपने होने के कुछ मानी को माने

तो तुमसे छूट जाती रही

तुम्हारे छोर को पकड़ती

तो खुद से छूट जाती रही

सोचती ऐसा क्या करूँ

कि, तुम उसके साथ भी चलो

और वो भी तुम्हारे साथ-साथ चले

बहुत दिखा दिया तुमने

और देख लिया उसने 

उसके हिस्से के सूरज को

तीन लफ्जों की ओट से

तुमने ग्रहण लगाए रखा सदियों से

वो तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में

खंडित इतिहास की कोई मूर्त्ति नहीं थी 

नहीं चाहिए उसे अब अपनी आँखों पर

तुम्हारा चश्मा

अब वो अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ायेगी

दर्द की तेज़ धार पर चलते चलते

घावों को लिखती यह औरतें

उस औरत ने भी आज

सीख लिया है

ग्रहण पार देखना

पहला पड़ाव है यह तो

मंज़िलें बच कर कहाँ जाएंगी?

तीन लफ्जों को इतिहास बनना ही होगा…..

इतिहास को इतिहास ही रहने दो

उस औरत ने  नया आकाश तराशने के लिए

एक नयी औरत को

आमंत्रण दिया है

देखना तुम…..

पहला पड़ाव है यह तो उसका

तुम्हें तो साथ आना ही होगा

फिर मंज़िलें बच कर कहाँ जाएंगी?

000

 

नाम :  डॉ अनिता कपूर

संगठन: ग्लोबल हिन्दी ज्योति (संस्थापक एवं अध्यक्ष)

पता:    975 टेन्नीसन गार्डेन, फ्लेट #203, हेवर्ड, कैलिफोर्निया 94544 (अमेरिका)

ईमेल:  anitakapoor.us@gmail.com

मो./ व्हाट्स अप 1-510-894-9570

 

 

 

 

Last Updated on January 17, 2021 by anitakapoor.us

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