जब अभाव के सागर में,
संघर्ष पिता का अथक रहा,
खुद के सुख से हर क्षण उनका,
जीवन जैसे हो पृथक रहा,
मैं हठ के भाव से प्रेरित तब,
कैसे खुद से अब न्याय करूं?
कैसे वो बचपन याद करूं?
अल्प सीमित संसाधन से,
अभिलाषा हर सुख ला देने की,
मैं कण की मांग अगर कर लूं,
अभिलाषा पर्वत ला देने की,
मैं और अधिक की चाह लिए,
कैसे खुद से अब न्याय करूं?
कैसे वो बचपन याद करूं?
पश्चाताप के आंसू जब,
पापा की आंख में रह जाते,
हर भौतिक सुख ना दे पाने का,
एहसास हृदय में पी जाते,
मैं तब जड़वत अनभिज्ञ खड़ा,
कैसे खुद से अब न्याय करूं?
कैसे वो बचपन याद करूं?
पैरों के छाले ढक लेते वो,
झूठी मुस्कान के चादर से,
हर एक कष्ट को सह लेते वो,
मुस्कान लिए इक आदर से,
“मैं हूं अबोध” यह सोच लिए,
कैसे खुद से अब न्याय करूं?
कैसे वो बचपन याद करूं?
सुख दुख को सब पहचान सकें,
हे ईश्वर…! तुम वरदान दो,
पितृ भाव जो समझ सकें,
ऐसे ही पुत्र का नाम दो,
ना ग्लानि बसे मेरे हृदय,
जब खुद से मैं प्रतिवाद करूं,
हो एक सुखद अनुभूति मुझे,
जब भी मैं बचपन याद करूं…!
जब भी मैं बचपन याद करूं…!!
सादर🙏🙏
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02