प्रेम आहुति
एक दिवस मानस पटल पर,
हर निश्चित रंग अटल पर ।
एक नवीन चित्र उभर कर आया,
जो विस्मित उर को कर लाया ॥
नदिया के उस ओर किनारे,
घने पेड़ों की छांव सहारे ।
गाँव दिखा विस्मित और अद्भुत,
बिसरा दे जो सुध-बुध ॥
पगडंडी से किया गमन,
देखा अद्भुत एक भवन ।
भव्य दिखे पर पड़ा विरान,
नीरव जैसे हो शमशान ॥
भवन मध्य में एक साध्वी,
अलक बिखेरे लगे बावरी ॥
बैठी तुलस्य पात्र सहारे,
कुम्लाही सी हाथ पसारे ॥
वहाँ होकर भी वहाँ न होकर,
दूर क्षीतिज भावों में खोकर ।
एक ओर एक टक निहारती,
बैठी है समय बिसारती ॥
कब प्रातः हुई कब सूर्य उगा,
कब साझं ढली कब चन्द्र चला ।
इसे ज्ञात नहीं ये जीवित होकर,
अनन्त हुई ये सीमित होकर ॥
पवन चले इस भवन मध्य,
चलती है इसकी श्वास भी ।
एक चित्र मानस पर अंकित,
एक इसे विश्वास भी ॥
एक नाम के पीछे देखो,
सारा विश्व भुलाया इसने ।
इससे भी अनजान बेचारी,
क्या खोया क्या पाया इसने ॥
हुआ परम् सौभाग्य सभी का,
एक सुबह फिर ऐसी आई ।
समस्त प्राणी हर्षित से देखे,
एक अजब हलचल सी छायी॥
एक सिद्ध योगी महान्,
उस गाँव के मध्य पधारे ।
हर प्राणी ने किया वन्दन,
हर प्राणी ने पैर पखारे ॥
आशीष अनेकों दिए उन्होंने,
समस्त ग्राम का किया भ्रमण ।
सबसे सबकी दुविधा जानी,
सुना सभी से सबका विवरण ॥
जब गुजरे वो योगी बाबा,
उस साध्वी के भव्य भवन से ।
कुछ संदेश पहुँचे बाबा तक,
उस भवन की दुःखी पवन से ॥
चरण थम गए वही अचानक,
देखा भवन व्याकुल से मन से ।
जोड़ लिए कर दोनों अपने,
श्रद्धा छलकी वहाँ नमन से ॥
दृष्टि सबकी उठी भवन पर,
जागी शंका सबके मन में ।
बोले बाबा एक बावरी,
रहती है इस विरह भवन में ॥
यादों में डूबी बेसुध सी,
बैठी रहती है आंगन में ।
आपने किया नमन यहाँ पर,
रहा छिपा क्या श्रद्धेय नमन में ॥
बाबा रहे मौन मगर,
मौन भवन में किया प्रवेश ।
संग चले वो प्राणी सारे,
जो थे उनके अनुचर विशेष ॥
बाबा बोले अरे साध्वी !
नमन तुझे शतबार मेरा ।
अभी अंकुरित मेरे मन में,
आदर और सम्मान तेरा ॥
स्वार्थ से अन्धा विश्व सकल ये,
स्वार्थ से अर्चन करता है ।
हर पल फल की इच्छा लेकर,
देव का पूजन करता है ॥
तू मानव को देव बनाकर,
ध्यान उसी का धरती है ।
प्रेम पुष्प ऐसे अर्पित कर,
हर पल पूजा करती है ॥
तूने जग बिसराया सारा,
तुझे याद वो एक रहा ।
तेरे अन्दर भक्ति का सागर,
आज यहाँ मैं देख रहा ॥
छल और कपट से मुक्ति,
सदा से तूने पाई है ।
तेरी ये अनन्य भक्ति,
तुझे कहाँ ले आई है ॥
निःस्वार्थ ये श्रुद्धा तेरी,
जिसे नमन मैं करता हूँ ।
प्राणियों में जो शंका जागी,
उसे शमन मैं करता हूँ ॥
आराध्य मगर वो तुझको भूला,
जाने क्या वो तेरा त्याग ।
वो लिप्त अपने भोगों में,
तूने वरण किया वैराग ॥
वो आराध्य आराध्य नहीं,
एक मानव साधारण है ।
तेरी ये अन्धी भक्ति ही,
तेरे दुःख का कारण है ॥
वो वह नहीं जो तू समझे,
सकल विश्व ये कहता है ।
तेरी ये भक्ति का सागर,
व्यर्थ उधर को बहता है ॥
चेतन्य हो गई वही साध्वी,
जो अब तक जड़भूत बनी ।
और उसकी निर्बल वाणी,
उसके भावों की दूत बनी ॥
बोली बाबा मैं निर्बल हूँ,
विवाद नहीं मैं कर सकती ।
आप जैसे विद्वान पुरूष से,
शास्त्रार्थ नहीं मैं कर सकती ॥
पर मेरा प्रश्न एक है,
उत्तर अवश्य देते जाना ।
वरन् मैं श्वासों को त्यागूँ,
पवन सकल लेते जाना ॥
जिस पर मेरा जन्म हुआ,
भारत भूमि कहलाती है ।
यहाँ भक्ति सच्ची हो तो,
अन्धी ही हो जाती है ॥
यहाँ पर पत्थर पूज-पूज कर,
हमने देव बनाए है ।
यहीं पर पत्थर कभी गणेश,
कभी महादेव कहलाए है ॥
मैंने क्या गलत किया गर,
मनु पुत्र को पूजा है ।
मेरा अटल विश्वास वही है,
और नहीं कोई दूजा है ॥
यदि वो आराध्य नहीं बन पाया,
दोष नहीं उसका होगा ।
अवश्य मेरी भक्ति गागर का,
कोण कोई रिसता होगा ॥
अवश्य मेरी पूजा में कोई,
त्रुटी शेष रही होगी ।
सर्वस्य किया अर्पण फिर भी,
कमी विशेष रही होगी ॥
यदि ये मेरा भाव सत्य है,
अवश्य बने वो मेरा देव ।
सिद्ध हो जाएगा स्वतः ही,
मिथ्या कहते थे लोग सदैव ॥
मेरी भक्ति की ये शक्ति,
श्रेष्ठ उसे बना डाले ।
आंधी आये वो भावों की,
पृथ्वी समस्त हिला डाले ॥
पर बाबा में इस जड़ता से,
थकती थकती जाती हूँ ।
पर पथराई आँखो से फिर भी,
रस्ता तकती जाती हूँ ॥
अब वो मानव पुत्र मेरा,
वो देव मेरा उद्धार करे ।
आज अन्तिम आहुति प्राणों की,
मेरी वो स्वीकार करें ॥
निढ़ाल हो गई उसकी काया,
प्राण नहीं अब शेष रहें ।
पलकों पर पुष्प् रूप कुछ,
अश्रु ही अवशेष रहे ॥
छोड़ गई पिंजरे को अपने,
दिव्य प्रकाश में लीन हुई ।
श्रेष्ठतम साधक के पद पर,
पल भर में आसीन हुई ॥
प्रश्न अधूरा छोड़ गई वो,
उत्तर उसे अब देगा कौन ।
हाथ जोड़कर, शीष झुकाकर,
खड़े हुए सब प्राणी मौन ॥
बाबा बोले धन्य साध्वी,
धन्य तेरा वो देव है ।
विश्व की हर पूजा से बढ़कर,
मानव प्रेम सदैव है ॥
Last Updated on January 20, 2021 by drsakshi.sharma87