न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

जीवन रोशनी – मनोरंजन तिवारी

Spread the love
image_pdfimage_print

लौट जाती है, होठों तक आकर वो हर मुस्कुराहट
जो तुम्हारे नाम होती है
जो कभी तुम्हारी याद आते ही कई इंच चौडी हो जया करती थी
उन्मुक्त हँसी, बेपरवाह और बेबाक बातें
करना तो शायद मैं अब, भूल ही चुका हूँ
बार-बार जाता हूँ, उस घास में मैदान में
और ढुन्ढता हूँ, अपने जीवन की वो तमाम स्वच्छंदता
जो तुमसे मिलते ही पुरे महौल में फै़ल जाया करती थी
मेरी आँखें चमकने लगती थी रोशनी से
और ज़ुबां पर ना जाने कहाँ से आ जाते थे
वो तमाम किस्से मेरे जीवन के
जो तुम्हे बताने को आतुर रहता था मैं अक्सर
हर अंग में स्फूर्ति जग जाती थी
जैसे पंख मिल गये हो।

मुझे अनंत आसमान में उड़ने के लिये…
अब नहीं होता कुछ भी ऐसा
जैसे जंग लग गये हो, मेरे हर अंग में
ज़ुबां पर कुछ आते ही ठहर जाता हूँ
तुम अक्सर कहा करती थी ना की
बोलने से पहले सोचा करो
सिर्फ यही एक इच्छा पूरी की है मैने तुम्हारी
अब जबकि तुम साथ नहीं हो
आँखों की चमक और रोशनी गुम होने लगी है
अनजाने डर व आशंकाओं की परछाइयों में उलझ कर
अब उड़ने को पंख नहीं, पैरों से चलता हूँ
अपने ही अस्तित्व का भार उठाये
मेरे कंधे झुक जाते है
जैसे सहन नहीं कर पा रहे है जीवन का भार
आँखें हर व़क्त जमीं में गड़ी रहती है
जैसे ढून्ढ रही हो कोई निसां
जो उन राहों पर चलते हुए हमने कभी छोड़ा था
अब धूप में, चेहरे की रंगत उड़ जाने का डर नहीं होता
और छाया भी दे नहीं पाती ठंडक तन को
कानों में कभी तुम्हारी अवाज़ गूँज जाती है
जैसे पुकार रही हो तुम, मुझे पीछे से
ठहर जाता हूँ कुछ पल के लिये
देखता हूँ, मुड कर पीछे, मगर वहाँ कोई नहीं होता
दूर, बहुत दूर जहाँ मेरी आँखों की रोशनी
बमुश्किल पहुँच पाती है
एक अस्पष्ट सी छाया नज़र आती है
देखती है मुझे और ठठाकर हँसती है
जैसे व्यंग कर रही हो मुझ पर
फिर अचानक रुक जाती है
पोछती है अपने आँचल से वे आँसू के बूँदे
जो उसके गालों पर लुढ़क आते है।

फिर गुम हो जाती है वो छाया भी
जैसे गुम हो गयी थी तुम कभी।

Last Updated on October 16, 2020 by adminsrijansansar

Facebook
Twitter
LinkedIn

More to explorer

2025.06.22  -  प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता  प्रवृत्तियाँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ  --.pdf - lighttt

‘प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता : प्रवृत्तियाँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रतिभागिता प्रमाणपत्र

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता पर  दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन संपन्न प्रयागराज, 24

2025.06.27  - कृत्रिम मेधा के दौर में हिंदी पत्रकारिता प्रशिक्षण - --.pdf-- light---

कृत्रिम मेधा के दौर में हिंदी पत्रकारिता प्रशिक्षण विषयक विशेषज्ञ वार्ता का आयोजन 27 जून को

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की 18वीं पुण्यतिथि के अवसर  परकृत्रिम मेधा के दौर में

light

मध्य प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता वर्ष 2025-26 के अंतर्गत मध्य प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता विषय पर

Leave a Comment

error: Content is protected !!