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जिज्ञासा धींगरा की कविता “एक पागल सी लड़की”

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छोटा सा सपना, गहरी सी आंखें,
मासूम सी बातें, पागल सी लड़की।
 
कहीं उसके सपनों की लड़ी खो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
आंगन की देहरी, सौ रंग के सपने,
अनछुए से अनदेखे इक दिल के कोने।
 
जो सबको खिलाकर भूखी भी सो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम गुम हो गई।
 
दिल में बसती थी, एक रंगीन बगिया,
उसमें बोती थी, अपनों की खुशियां।
 
लो सूखे क्या पौधे! बस रो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
टूटे जो वादे, रूठे जो अपने,
गिन भी ना पाओ, झूठे थे इतने।
 
बस तब से मुश्किल खड़ी हो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
बस एक भगवान थे उसके हमराज,
करती थी उनसे राज की हर बात।
 
वक्त से लड़ने को  खड़ी हो गई,
वो पागल सी लड़की, कहीं गुम हो गई।
 
सपने जलाकर बन गई वो दीपक,
रह गई अकेली, ना कोई आहट।
 
जाने कहां वो फुलझड़ी खो गई।
उफ वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
वो शरारत वो बातें कहीं खो गई
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
 जिज्ञासा धींगरा ,खुर्जा, बुलन्दशहर

Last Updated on November 23, 2020 by navneetshukla2021

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