रचना शीर्षक : “तब गांव हमें अपनाता है…!!!”
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ग्रामीण भाव की धारा में,
जब शहर कोई बह जाता है,
शहरी होने का दंभ हृदय से,
मिट्टी सा बन रह जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!
संघार गांव का कर कर के,
हर रोज़ शहर की नींव धरी,
ईंटों की ऊंची दीवारों से,
कैसे हो पृथ्वी हरी भरी,
जब शहर श्रेष्ठ और गांव तुच्छ,
का भूत उतर सा जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!
सब बड़े हुए और शहर गए,
वो बूढ़ा कैसे प्रस्थान करे,
जन्म भूमि की माया में बंध,
कैसे उसका अपमान करे,
शहरी बेटा बूढ़े मन को,
जब सहज भाव पढ़ पाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!
वो मिट्टी में है सबल बना,
तुम चिकने पत्थर पर फिसल रहे,
ईश्वर प्रदत्त संसाधन छोड़,
भौतिकता में बस विकल रहे,
उस निर्बल अन्नदाता की खातिर,
जब सम्मान ज़रा बढ़ जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!
बाबू जी का प्रेम छोड़,
मम्मी डैडी वो सीख रहा,
सभ्य समाज की आशा में,
एकल स्वभाव सा दीख रहा,
सम्मानजनक भाषा का ज्ञान,
जब शहरी बेटा कर जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!
सादर,
🙏😊
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02