भीगी पलकें , स्वप्न अधूरे ,
किंतु निराशा में हो आशा,
यही जगत की है परिभाषा !
कभी मार खाकर मौसम की ,
दीपक एक हुआ बुझने को ,
पर उसके मन के साहस ने ,
हिम्मत दी उसको लड़ने को,
दीप लड़ा, बलिदान हुआ पर,
अंत समय तक हार न मानी ।
माटी का ,माटी में मिलकर ,
लिखी धरा पर अमर कहानी,
वही शिखर पर पहुँच सका है ,
जिसने ख़ुद को स्वयं तराशा ।
यही जगत की है परिभाषा !
खड़े धरातल पर यथार्थ के-
चुनौतियों को गले लगाते,
और निहत्थे जीवन रण में,
वर्तमान से द्वन्द रचाते,
कभी व्याधियों से घबराकर ,
तनिक नहीं जो विचलित होते
इतिहासों के पृष्ठों पर वो ,
स्वर्णाक्षर से अंकित होते ,
ठहरे क़दमों को समझा दो,
जीत हार में भेद ज़रा सा ,
भीगी पलकें,स्वप्न अधूरे ,
फ़िर भी मन में हो इक आशा ।
@ मुकेश त्रिपाठी
Last Updated on January 21, 2021 by tripathim9