मुझे खिलाती मुझे पिलाती
बांहों मे लेकर सो जाती।
तिरस्कार की गंध न जिसमें
साक्षात ममता की प्रति मूर्ति।
क्या जाने मानव उस मां को
नव मास तक कष्ट झेलती।
प्रसव वेदना की घड़ी में वह
अपना धैर्य कभी न खोती।
आशा चाहे पुत्र पुत्री की
सबको अपने हृदय लगाती।
दुग्धपान का सुख देकर वह
हृष्ट पुष्ट बालक को करती।
क्षण प्रशिक्षण चिंतन उस सुत का
जिसकी आशा लेकर बैठी।
ज्येष्ठ श्रेष्ठ हो पुत्र यह मेरा
मोती सदृश भाव पिरोती।
उच्च भाव यह उस मां के प्रति
जिसके मन में प्रतिदिन होता।
वही पुत्र सच्चा कहलाता
अन्य सभी बस मिथ्या मिथ्या।
मां ने दिया प्रेम पुत्र को
प्रीति पात्र वह कहलाता।
उसकी आंखों का तारा वह
यदि उसे न भूल जाता।
अपने-अपने सब होते हैं
पर मां का प्रेम नहीं देते हैं।
गोपी सदा कृष्ण को प्यारी
फिर भी नाम यशोदा का लेते हैं।
भावपूर्ण पूजन माता का
यह संस्कृति की उज्जवल गाथा।
तभी विश्व जगत में भारत
सदा पूजनीय कहलाता।
मां की सेवा करता जो नन्दन
घर में कभी न होता क्रन्दन।
देव विवश होकर भी करते
प्रतिदिन उसका वन्दन वन्दन।
वृक्ष विशाल होते हैं फिर भी
उन्हें कल्पना भू से मिलती।
जिसकी गोद में पलती प्रकृति
उसकी चिंता मां भी करती ।
फल के भारों से लद कर भी
वृक्ष सदा झुक जाते हैं।
मानों मां का आदर करने
नतमस्तक हो जाते हैं।
यही प्रकृति शिक्षा देती है
मां के उस सम्मान की।
जीव जगत अनुकरण करें जो
मां निधि आशीर्वचनों की।
आचार्य रामचंद्र गोविंद वैजापुरकर
श्री जगद्देव सिंह संस्कृत महाविद्यालय सप्तर्षि आश्रम हरिद्वार
Last Updated on January 2, 2021 by srijanaustralia