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डॉ. शैलेश शुक्ला

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आँगन में खेलते बच्चे

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आँगन में खेलते बच्चे

आँगन में खेलते रंग-बिरंगे बच्चे,
लगते कितने प्यारे कितने अच्छे !
फूलों-सी मुस्कान है-चेहरों पर
और आँखों में भरे-सपने सच्चे ।

खेलते छुपन-छुपाई, पकड़म-पकड़ाई,
गोपी चंदर ने इनकी ख़ुशी बढ़ाई;
भले ही हाथ-पाँव, कपड़े माटी से सने,
फिर भी मज़े से बाँटकर खाते चने ।

हँसना-रोना, शोर मचाते जाना,
किसी को चिढ़ाकर घर में घुस जाना,
गिरकर संभलना- हर्ष भर देता है;
यही सब तो खेल का अंग होता है ।

इन्हें बाहर खेलता देख सूरज भी
अपनी तपिश कुछ कम कर देता है,
पवन का हरेक शीतल झोंका
इनके उत्साह को दुगना कर देता है ।

चुपके से खेतों में घूमने जाना,
छिपकर आम-अमरूद तोड़कर खाना,
गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाना ,
अपने आप में कितना सुख देता है !

इनकी मासूम शरारतों को देख
इन्हें, अंक में लेने को जी करता है,
इनकी अजब बाल लीलाओं को निरख,
सहसा नंदकिशोर स्मर्ण हो उठता है ।

मोटी-मोटी किताबों में मत खोने दो,
दुकानों-फैक्ट्रियों पर मत जाने दो,
यूँही आँगन में खेलते लगते अच्छे-
ये रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे बच्चे ।

ये अभी है-माटी के घड़े कच्चे,
ना छिने,कोई इनका सुनहरा बचपन
चूंकि इन्हें ही बदलना है देश को;
ये हीं बनेंगे देश के सेवक सच्चे ।

आँगन में खेलते रंग-बिरंगे बच्चे,
लगते कितने प्यारे कितने अच्छे !
फूलों-सी मुस्कान है-चेहरों पर
और आँखों में भरे-सपने सच्चे ।

संदीप कटारिया (करनाल, हरियाणा)

Last Updated on May 12, 2021 by sandeepk62643

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