माँ,
या पा,
दोनों में
दर्द छिपा
उठे हूक में,
दिल के टूक में,
अन्जाने तार जुडे,
कुछ आँसू में चू पडे,
ये कह पाना है मुश्किल ,
होता किस हालात का दिल,
किसी की आरजू में रो पडा है,
या तुम्हारी सलामती में अडा है।
हो क्यूॅ न,होठों के संपुट खुलने से,
सस्वर प्यार से माँ व पा निकला है,
फिर इस जमाने ने कयूॅ उसे छला है,
कहते हैं , गुस्से में जब माँ होती है,
छलकते ऑसुओ से वह रोती है,
पा रोता नहीं,पर नेत्रों से तरल,
पीता, दिल से चाहे हो गरल,
सताना नहीं यूँ हरकतों से,
चंद शब्दों या जरूरतों से,
वे रहें झोपड़ी या घर में,
आश्रम हो या शहर में,
मन्नतें परवरदिगार से,
करेंगें सदा उदगार से,
ध्यान में वे मग्न हों,
भवन चाहे भग्न हों,
दुआ करेंगे दिल से,
डिगें नहीं तिल से,
आखिर में हैं वो,
तो पा ही हैं,
और माँ ।
– ओमप्रकाश गुप्ता, बैलाडिला, छत्तीसगढ़
Last Updated on December 14, 2020 by srijanaustralia