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डॉ. शैलेश शुक्ला

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काव्य-मंच 

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काव्य-मंच 
(मापनी:- 2122  2122  212)

काव्य मंचों की अवस्था देख के,
लग रहा कविता ही अब तो खो गयी;
आज फूहड़ता का ऐसा जोर है,
कल्पना कवियों की जैसे सो गयी।

काव्य-रचना की जो प्रचलित मान्यता,
तोड़ उनको जो रचें वे श्रेष्ठ हैं;
नव-विचारों के वे संवाहक बनें,
कवि गणों में आज वे ही ज्येष्ठ हैं।

वासनाएँ मन की जो अतृप्त हैं,
वे बहें तो काव्य में रस-धार है;
हो अनावृत काव्य में सौंदर्य तो,
आज की भाषा में वो शृंगार है।

रूप की प्रतिमा अगर है मंच पर,
गौण फिर तो काव्य का सौंदर्य है;
फब्तियों की बाढ़ में खो कर रहे,
काव्य का ही पाठ ये आश्चर्य है!

चुटकलों में आज के श्रोता सभी,
काव्य का पावन रसामृत ढूंढते;
बिन समझ की वाहवाही करके वे,
प्राण फूहड़ काव्य में भी फूंकते।

मूक कवि, वाचाल सब लफ्फाज हैं,
काव्य के सच्चे उपासक खो रहे;
दुर्दशा मंचों की ऐसी देख कर,
काव्य-प्रेमी आज सारे रो रहे।

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया

Last Updated on December 13, 2020 by basudeo

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