अधूरा प्रेम…!!!
बंजर मन के इस उपवन को,
मैं सींच सींच कर हार गया…!
उत्साह प्रेम जो हृदय बसा,
थक कर अब वो भी हार गया…!!
मेरे जीवन की, हर एक घड़ी,
तब व्याकुल थीं तेरी खातिर…!
अभिलाषाओं की हर एक कड़ी,
बस जुड़ती थीं तेरी खातिर…!!
अनभिज्ञ बने रहने का तब,
हर क्षण तुमने इक स्वांग किया…!
बेबस से मेरे प्रेम का तब,
उपहास किया…परिहास किया…!!
अब सांझ भई जीवन की जब,
तुम प्रेम पथिक बन क्यूं आए…!
लौ भभक रही दीपक की नित,
जीवन अमृत अब क्यूं लाए…!!
अब हार चुका जब खुद से मैं,
तुम जीत की राह ना दिखलाओ…!
त्याग भाव से भरा सुनो,
तुम शास्त्र कोई ना सिखलाओ…!!
इस जन्म तो मेरी हार हुई,
न तुम न तुम्हारा साथ मिला…!
पूरा कर दे आधे जीवन को,
ना ऐसा तेरा हांथ मिला…!!
पायल की झंकार लिए,
किसी जन्म गर तुम आना…!
गुलशन कर देना चमन मेरा,
जीवन को बस महका जाना…!!
जीवन मृत्यु का क्षितिज जहां,
अब “ऋषि” चला वो राह लिए…!!
तुम भी उस ओर से चल देना,
जल्दी मिलने की चाह लिए…!!!
©ऋषि देव तिवारी
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02