जीवनसाथी….!!!
“जीवनसाथी”…!!! ये शब्द सुनते ही मन में सर्वप्रथम “पत्नी” शब्द की आवृत्ति अवश्य होती है। लेकिन मेरे विचार से पत्नी, जो ये शब्द है…थोड़ा संकुचित भावार्थ से पूर्ण है। “जीवनसाथी” शब्द ज्यादा गूढ़ और अर्थवान है। यह शब्द सिर्फ सांसारिक नियमों को पूर्ण करने के उद्देश्य से एक दूसरे का हो जाने वाली विचारधारा का समर्थन नहीं करता…बल्कि जीवन में एक दूसरे के सुख दुख, यश अपयश, अमीरी गरीबी, कीर्ति अपकीर्ति में कंधे से कंधा मिला कर खड़े रहने का बोध भी कराता है। ये शब्द बोध कराता है…उस भाव का…जो ये बताता है… कि पति और पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं…एक दूसरे के पूरक हैं…बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं।
कुसुम भी सही मायने में पत्नी कम….जीवनसाथी ज्यादा थी। वो जीवनसंगिनी थी….राधेश्याम के दुखों की…। आर्थिक रूप से भले ही वो उसकी कुछ मदद ना कर पा रही हो…लेकिन उसको संबल और साहस रूपी धन वो हमेशा प्रदान करने की कोशिश करती रहती थी।
रात के नौ बज रहे थे। राधेश्याम काम से लौटा था। हांथ मुंह धुल कर वो खाना खाने बैठा। थाली में पड़ी चार रोटियां और मिर्ची की चटनी देख कर वो साहस नहीं जुटा पाया… कि कुसुम की नज़रों से नज़रें मिला पाए।
“बच्चे सो गए…???” खाते खाते ही राधेश्याम ने सुमन से पूछा। कुसुम खामोश ही रही। राधेश्याम अपना सर झुकाए खाना खाता रहा।
“और रोटी दें…??” कुसुम ने पूछा।
“नहीं…!” राधेश्याम उठ चुका था हांथ धुलने के लिए।
“आप बुरा ना मानिए तो हम एक बात कहें…??” कुसुम ने सालों के बाद अपने मन की बात आज कहने की ठान ली थी।
“मैं सोच रही थी…कुछ काम मैं भी कर लेती। बच्चे भी सब स्कूल चले जाते हैं। खाली ही तो रहती हूं। समय भी कट जाएगा। कुछ पैसे भी मिल जाएंगे। कब तक ऐसे ही अकेले जान देते रहेंगे आप। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं…खर्चे भी बढ़ रहे हैं…!!” कुसुम ने अपने मन की बात उजागर की।
बिल्कुल सन्नाटा था घर में। कुसुम बर्तन साफ करते करते राधेश्याम के जवाब का इंतज़ार कर रही थी।
“क्या कहेंगे मोहल्ले के लोग…?? कुसुम, जिसका चेहरा आज तक बहुतों ने नहीं देखा…वो आज कैसे जाएगी बाहर..?? पत्नी की कमाई खा रहे हैं सब..?? वाह राधेश्याम…इतनी भी कुबत नहीं बची तुझमें…जो अब अपनी पत्नी को कमाने भेज रहा। लोगों के तानों का जवाब कैसे दे पाएगा तू…?? फिर कौन सा काम मिलेगा भला उसे??? ज्यादा पढ़ी लिखी भी तो नहीं है वो। दसवीं पास महिला को भला कौन सी नौकरी मिल सकती थी।” राधेश्याम का स्वयं से प्रश्न युद्ध चल रहा था।
कुसुम…ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखने वाली एक सामान्य सी महिला थी। वैसे तो वो सिर्फ दसवीं पास थी…लेकिन सामाजिकता का ज्ञान रखने वाली वो एक विदुषी थी। सही गलत की पहचान करना उसके लिए क्षण मात्र का काम था। जिम्मेदारियों का आभास इतना था… कि आज तक कभी उसकी वजह से किसी के कोई काम में बाधा नहीं आयी। क्या-क्या नहीं किया उसने आज तक…अपने परिवार के लिए।
इधर राधेश्याम का अन्तर्द्वन्द जारी था।
“समाज…!!! कैसा समाज…?? ये समाज क्या हमे खाने को देता है। हमारी जरूरतों को पूरा कर पाने के लिए एक फूटी कौड़ी भी आज तक दिया है क्या…इस समाज ने। फिर क्यूं चिंता करूं मैं…इस समाज की??? लोगों का तो काम है कहना…ताने मारना। ये कुसुम…मेरी जीवनसंगिनी…क्या दे पाया हूं इसे मैं आज तक…सिवाय दुखों के…सिवाय जिम्मेदारियों के। आज अगर ये कुछ काम कर भी लेती है…तो किसके लिए…??? हमारे लिए ही तो…हमारे बच्चों के भविष्य के लिए ही तो..!!! दुखों में तन, मन, धन से जो साथ खड़ा रहे….वहीं तो जीवनसाथी है।” राधेश्याम का संकल्प, समाज के अर्थहीन रीतियों और विधानों पर आज भारी था।
कुसुम…एक प्राइवेट स्कूल में छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाने का काम करने लगी। पांच सौ रुपए…उसका पारिश्रमिक…आज भले ही राधेश्याम की गरीबी दूर ना कर पाए…लेकिन ये पांच सौ रुपए उसे गर्व की अनुभूति कराने के लिए काफी थे। ये पांच सौ रुपए राधेश्याम को विश्वास दिलाते थे… कि राधेश्याम तुम अकेले नहीं हो… मैं…कुसुम…तुम्हारी जीवनसंगिनी…हमेशा तुम्हारे साथ हूं…हर सुख में…हर दुख में…!!!
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02