अपराध बोध…!!!
अपमान के बादल आसानी से नहीं छटते। रोज़ यादों की ऐसी मूसलाधार बारिश करते हैं कि एक एक दिन गुजारना मुश्किल हो जाता है। अविनाश को भी लखनऊ से आए करीब चार महीने हो आए थे। पढ़ाई लिखाई भी छोड़ दी थी उसने। सुमन से अपमानित होने के बाद मानों अविनाश रोज़ बस प्रतिशोध की आग में जला जा रहा था।
जनवरी माह की कड़ाके की ठंड शुरू हो गई थी। रात के दस बजे होंगे। अविनाश अपने घर की छत पर बैठा इक टक आसमान की ओर देखे जा रहा था। अभी पिछले साल ही अविनाश की मां का देहांत हुआ था। तब से ही घर में बिल्कुल अकेला सा हो गया था वो। मां के चले जाने से जहां एक ओर अविनाश पूरी तरह टूट सा गया था… वहीं दूसरी ओर ये सुमन वाला मामला हो गया। कभी कभी उसे लगता कि इस दोमुंहे समाज में उसके जीने का क्या फायदा है। लेकिन आज तक उसके जीवित रहने का एक ही उद्देश्य था…बस सुमन से बदला।
इन्हीं सब विचारों के बीच में किसी ने पीछे से अविनाश के कंधे पर हांथ रख दिया। पापा थे ये अविनाश के।
“क्या बात है बेटा…?? क्यूं इतनी ठंड में यहां बैठे हो?? अब बहुत हो गया। छः महीने हो गए उस घटना को। कब तक उन बातों को दिल से लगाए बैठे रहोगे। पढ़ाई लिखाई से कोई नाता नहीं रहा तुम्हारा अब। चाहते क्या हो भाई??” पिता जी बोलते जा रहे थे…लेकिन अविनाश तो बस बिल्कुल खामोश…बस ना जाने क्या सोचता ही जा रहा था।
“अच्छा सुनो…एक खुशखबरी है तुम्हारे लिए। नरेश अंकल आए थे। तुम्हारे लिए एक जॉब का ऑफर लेकर। अकाउंटेंट की जॉब है। पंद्रह हजार मिलेंगे। लखनऊ में ज्वाइन करना है… मंडे को चले जाओ। जीवन चलते रहने का नाम है बेटा। आगे बढ़ो। पीछे की बातों को भूल जाओ।” इतना कह कर पापा नीचे चले गए।
वैसे तो अविनाश को जैसे लखनऊ नाम से ही नफरत हो गई थी। लेकिन इतने दिनों बाद उस शहर…!! उस शहर क्या बल्कि सुमन के शहर में जाने का एक मौका मिला था। उसे लगा यही एक मौका है…सुमन से बदला लेने का। अचानक से बिल्कुल वो जैसे कि चैतन्य हो उठा था। लाखों खयाल उसके मन में ही हिलोरें मारने लगे।
बिना किसी देरी के अविनाश ने वो नौकरी ज्वाइन कर ली। रोज़ दस से सात बजे तक अविनाश का समय अब ऑफिस के काम में जाने लगा। एक साल तक ऐसे ही चलता रहा। सुमन का खयाल भी धीरे धीरे अविनाश के मानस पटल से धूमिल सा होता चला गया। लेकिन अविनाश अब वो अविनाश नहीं था। हमेशा प्रसन्न रहना…बिना बात के भी हसने के कोई ना कोई बहाने ढूंढ़ ही लेना…उसके व्यक्तित्व में कभी शामिल हुआ करता था। अब बिल्कुल खामोश ही रहता था वो।
आज बहुत दिनों के बाद उसका मन हुआ…चलो कहीं घूम के आते हैं। रविवार भी था आज। तो अविनाश पैदल ही निकल पड़ा। शाम हो गई थी। लखनऊ के हृदय हजरतगंज चौराहे पर अविनाश ऐसे ही बैठा कहीं विचारों में खोया हुआ था। तभी अचानक से एक पहचाना हुआ चेहरा उसके सामने आ खड़ा हुआ।
“अरे अविनाश…! तुम यहां…!! कहां रहे इतने दिन??? तुमने अपना नंबर भी बदल दिया। मैंने तुम्हे ढूंढने की कितनी कोशिश की यार। अपनी बेस्ट फ्रेंड के साथ ऐसा कोई करता है क्या??” ये सुमन थी। वहीं चुलबुला पन था उसकी आवाज़ में…जिसपर कभी अविनाश अपनी जान देता था। लेकिन आज तो वो बिल्कुल खामोश था। कोई प्रतिक्रिया नहीं।
“मैं आपको नहीं जानता मैम…! आपको शायद कोई गलतफहमी हो रही है…मुझे पहचानने में।” बड़ी रूखी सी आवाज़ में अविनाश ये कहते हुए वहां से चलने लगा।
“अरे यार…अविनाश…इतनी नाराज़गी है मुझसे??? माफ़ कर दो बाबा..!!” सुमन ने अविनाश का हांथ अपने हांथों में लेकर बड़े ही आत्मीय भाव से बोला, ” चलो…कहीं चल कर कॉफी पीते हैं।”
अविनाश बिना कुछ बोले सुमन कि स्कूटी पर बैठ गया। दोनों के बीच एक खामोशी थी। सिर्फ कॉफी के चुस्कियों की ही आवाज़ आ रही थी। तभी सुमन ने बोलना शुरू किया। “अविनाश… मैं तुम्हें शुरू से अपना एक अच्छा दोस्त मानती थी। लेकिन मेरे आगे एक लाइफ है। तुमसे एक बात कहना चाहती हूं।” अविनाश बिल्कुल खामोशी से सुमन की हर बात को ध्यान से सुनता जा रहा था।
” यार…हमारी कुछ तस्वीरें हैं तुम्हारे पास..! शायद वो अब तुम्हारे किसी काम की नहीं। तुम्हे याद है ना…बहुत सारी तस्वीरें हमने बनवाई थी जो?? प्लीज़…वो मुझे वापस कर दो। मेरी शादी होने वाली है। इसी महीने की बीस तारीख में मेरी शादी है। मैं नहीं चाहती कि उनकी वजह से मेरी लाइफ में कभी कोई समस्या आए। तुम समझ रहे हो ना मुझको?? कुछ बोलते क्यूं नहीं यार???”
अविनाश का प्रतिबिंब उसके ठीक सामने खड़ा था। बोला, “देखा…ये कारण है…जो इसने तुझसे बात की। तुझे कॉफी के लिए ऑफर किया। तू इसके झांसे में मत आ। इन तस्वीरों के सहारे तू सुमन के जीवन में तूफ़ान ला सकता है। उसकी जिंदगी बर्बाद कर सकता है। बेवकूफ मत बन। उठ और निकल यहां से। बदला ही तो लेना चाहता था तू। अब तो सुमन ने ही तुझे वो रास्ता बता दिया। कैसे भूल सकता है तू वो अपमान का दिन। तेरी सच्ची मोहब्बत का क्या मूल्य लगाया था उस दिन…सुमन ने। सब भूल गया क्या??”
अविनाश ने कॉफी के पैसे टेबल पर रखे और बिना कुछ कहे ही वहां से निकल पड़ा। सुमन की मधुर आवाज़ भी आज उसे रोक नहीं पाई।
घर पहुंचते ही सबसे पहले एक एक कर के अविनाश वो सारी तस्वीरें देखने लगा। सारी यादें मानों जीवंत हो उठीं। सुमन के साथ बिताया हर एक पल मानों आंखों के सामने आ गया। वो गुलाब का फूल जो पहली बार सुमन ने दिया था। सुख गया था लेकिन सुगंध उतनी ही थी आज। वो तस्वीर, जब अविनाश ने सुमन को अपना प्रेम पुष्प अर्पित किया था…चारबाग रेलवे स्टेशन पर सारे ज़माने के सामने। बंद कमरे में अविनाश चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा।
“नहीं…नहीं वापस करूंगा ये तस्वीरें। जिंदगी बर्बाद कर दूंगा उसकी मैं…! देखता हूं कैसे शादी करती है वो। उसी मंडप में ये तस्वीरें उसके होने वाले पति को दूंगा। सोशल मीडिया पर डालूंगा सारी तस्वीरें अभी। फेसबुक, इंस्टाग्राम हर जगह। मेरी जिंदगी तबाह की है उसने। आज ये बस पंद्रह हजार की नौकरी…उसी की वजह से है। मेरे सारे सपने चूर हो गए…और वो अपने सपने पूरी करेगी। नहीं होगा कभी ऐसा।” अविनाश पर अविनाश का प्रतिबिंब हावी था।
तभी उसे लगा कि उसकी मां उसके सामने खड़ी थी।
“अरे मां…!! आप??”
“हां बेटा… मैं ही हूं। तुम परेशान हो तो मुझे आना ही था।”
एक दूसरा बिम्ब था वहां…अविनाश की मां का रूप धारण किए हुए।
“ये क्या करने जा रहा बेटा?? क्या यही सिखाया था मैंने?? सुमन एक स्त्री है..बिल्कुल मेरी तरह। कौन सा अपराध किया है उसने। सभी को हक है अपना बुरा भला सोचने का। वहीं तो किया उसने। अपने पिता जी के अतिरिक्त और क्या पहचान थी तुम्हारी उस वक़्त?? क्या हैसियत थी तुम्हारी?? सिर्फ प्यार से पेट तो नहीं भरता। जिंदगी के तमाम भौतिक सुखों के लिए पैसे चाहिए। वो थे क्या?? फिर तुम्हारा तिरस्कार कर के सुमन ने कोई गलती तो नहीं की। अपनी जिंदगी तो तुमने खुद ही खराब की है। पढ़ाई खुद छोड़ी…उसकी याद में खुद पड़े रहे…उसने तो नहीं कहा था…अब दोष उसे देते हो…!!”
अविनाश का आवेश थोड़ा शांत हो गया था। इस दिशा में तो उसने कभी सोचा ही नहीं।
लेकिन पुनः अविनाश के प्रतिबिंब ने अपनी उपस्थिति दी।
“अरे तो क्या हुआ?? सिर्फ पैसे रुपयों से ही प्रेम लक्षित होता है क्या?? जीवन में सच्चे प्रेम का क्या कोई मूल्य नहीं। जीवन के तमाम ऐशो आराम…लेकिन प्रेम से कोई उसे परोसने वाला ना हो…ऐसी धन संपत्ति किस काम की?? उसे आज भी अपने किए पर कोई पछतावा नहीं। क्या भरोसा कि उसका होने वाला पति उसकी कोई जरूरत ना पूरी कर पाए तो वो उसे भी छोड़ दे।” प्रतिशोध से भरा अविनाश आज किसी की भी सुनने को तैयार नहीं था।
शहनाइयों की मधुर ध्वनि की आवाज़ सुनाई दे रही थी। चमकती रोशनी सारे आसमान को विभिन्न रंगों से दैदीप्यमान कर रही थी। सुमन का वैवाहिक समारोह पूरे उफान पर था। अविनाश अपने हांथों में एक लिफाफा लिए हुए सुमन के ठीक सामने जा खड़ा हुआ।
सुमन का अंतर्मन बिल्कुल डर गया।
“कहीं ये वही तस्वीरें तो नहीं। हे भगवान…ये अविनाश तो मुझे बर्बाद कर के ही मानेगा। कहीं ये बात प्रदीप (सुमन का होने वाला पति) को पता चली तो मैं क्या कहूंगी भला। हां…एक काम करती हूं…प्रदीप को मैं खुद ही सब बता देती हूं।” और सुमन जोर से भागी प्रदीप के कमरे की ओर। सुमन इतनी डरी हुई थी कि उसने हर एक बात बिना कुछ सोचे समझे प्रदीप से बता दी। प्रदीप मानों क्रोध से तिलमिला उठा था। वैवाहिक कार्यक्रम वहीं रुक गया। अविनाश को जैसे ही महसूस हुआ…उसने निमंत्रण से भरा वह लिफाफा सुमन के पिता जी को देकर वहां से निकल पड़ा।
अंतर्मन का युद्ध भी अजीब होता है। अविनाश सोचने लगा, “क्या मिला उसे ये सब कर के?? लेकिन मैंने क्या किया। ये तो सुमन का अपराधबोध था…जिसने उसकी खुशियों के साथ खिलवाड़ किया। ये तो भगवान की सज़ा थी। फिर मेरे प्रतिशोध का क्या?? मेरे बदले का क्या??”
अविनाश जैसे जैसे सोचता…उसकी प्रतिशोध की भावना और प्रबल होती जाती।
“नहीं…अभी मेरा बदला पूरा नहीं हुआ।”
अविनाश क्रोध के वशीभूत…चलता ही चला जा रहा था…अपने घर की ओर…!!!
कहानी अभी जारी है…🙏🙏
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02