पश्चाताप….!!!
इच्छित कार्य पूर्ण ना हो तो व्यक्ति कितना भी मजबूत क्यूं ना हो…एक आघात सा अवश्य लगता है। सुमन भी आजकल ऐसे ही दौर से गुज़र रही थी। सुमन के घर वाले भी शादी टूटने के लिए सुमन को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। लेकिन सुमन के मन में तो कुछ और ही चल रहा था।
“ये सब अविनाश का किया कराया है। वो चाहता ही नहीं कि मैं खुश रहूं। जब सब खत्म ही हो गया तो वो आया ही क्यूं उस दिन। जरूर उस दिन वो प्रदीप से मिला होगा । उसे सब कुछ बताया होगा। भला इतनी सी बात पर इतना बड़ा निर्णय कौन करता है। शादी ही तोड़ दी। आजकल किसके पुरुष मित्र नहीं होते या किसी पुरुष की कोई महिला मित्र नहीं होती। सब के सब दुश्मन हैं हमारे।” नकारात्मक भाव पूरी तरह सुमन के मन पर हावी थे।
“अरे ओ सुमन…!! क्यूं किसी और को दोष देती हो? सब तेरी ही गलती है। और अधिक के लालच में तूने थोड़ा भी जाने दिया। अविनाश के प्रेम का तिरस्कार किया…उसे उसके पिता के सामने जलील किया…उसका अपमान किया। अब तो अपनी गलती मान के। भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती। अभी भी देर नहीं हुई है। अपना ले उसे। पलकों पर बिठा के रखेगा तुझे वो।” एक दूसरी ही सुमन, उस सुमन को धिक्कार रही थी ।
“अब मुझे वो क्यूं स्वीकार करेगा भला।” सुमन के मुख से सहसा ही ये शब्द निकल पड़ा।
“अरे दीदी…क्या हुआ??” सुमन को पता भी नहीं चला कब उसकी भाभी उसके पास आकर बैठी हुई थी।
“कौन नहीं स्वीकार करेगा आपको?? प्रदीप….??? या फिर….अवि….!!!!!!!!!”
भाभी की बात खत्म होने से पहले ही सुमन चिल्ला उठी,
” नाम ना लो भाभी उस दुष्ट का। मेरी जिंदगी बर्बाद कर के ही मानेगा वो। इससे अच्छा मैं मर क्यूं नहीं जाती।” सुमन इतना कहते कहते रो पड़ी।
“दीदी…अगर कहो तो मैं अविनाश से बात करूं क्या?? मुझे लगता है वो अभी भी तुमसे बहुत प्रेम करता है।” भाभी ने सुमन को धीरज देते हुए कहा।
“नहीं भाभी…अब कोई फायदा नहीं। अपमान का घूंट ना तो पिया जाता है और ना ही उगला। मैंने बहुत गलत किया है उसके साथ। अब वो सिर्फ बदला लेना चाहता है मुझसे।” सुमन का गला भर आया था। शायद पहली बार उसे अपनी गलती का एहसास हुआ था।
इधर अविनाश जहां एक ओर अपने प्रतिशोध की आग में जल रहा था तो वहीं दूसरी ओर उसे सुमन की शादी टूट जाने की आत्मग्लानि भी सताए जा रही थी। सुमन के घर वालों को जो आर्थिक व सामाजिक क्षति पहुंची थी इस घटना से…क्या अविनाश उसे वापस दे सकता था। अगर नहीं…तो क्या अधिकार था उसे इस तरह सुमन की शादी में बिना बुलाए चले जाने का?? इन्हीं खयालों में अविनाश डूबा हुआ था कि उसके ऑफिस के एक चपरासी ने उसे बताया कि गेस्ट रूम में कोई उससे मिलने आया है।
अविनाश जैसे ही वहां पहुंचा…विस्मित हो उठा।
“अरे भाभी आप…??? यहां कैसे??? आपको मेरा पता किसने दिया।” सुमन की भाभी का पैर छूते हुए ऐसे कई प्रश्न अविनाश ने कर डाले।
“कैसे हो अविनाश तुम?? भई नाराज़गी तो सुमन से है तुम्हारी…हम लोगों ने क्या बिगाड़ा है?? शादी वाले दिन बिना हमसे मिले ही चले गए तुम??” भाभी ने ज़रा छेड़ने वाले अंदाज़ में बोला।
“नहीं भाभी…ऐसा कुछ नहीं है। बताइए ना कैसे आना हुआ??” अविनाश विस्मय से भरा हुआ था।
“मैं अकेले नहीं आयी…सुमन भी आयी है मेरे साथ। बाहर खड़ी है वो। अपने किए पर पछतावा है उसे। माफी मांगना चाहती है अविनाश तुमसे। क्या तुम उसे माफ कर सकते हो??” भाभी ने जैसे एक आत्मीय भाव से सुमन की भावनाओं को अविनाश पर थोप ही दिया था।
तब तक सुमन भी वहां आ पहुंची। अविनाश बिल्कुल मुंह फेर कर खड़ा हो गया।
कुछ बोलने ही वाला था कि फोन की घंटी बजी।
” हैलो…बेटा अविनाश… मैं नरेश अंकल बोल रहा हूं।”
“जी अंकल जी…प्रणाम…बोलिए…??”
“बेटा…जल्दी से गोरखपुर आ जाइए। पापा जी को हार्ट अटैक हुआ है। हॉस्पिटल में हैं वो…!!”
अविनाश का हृदय जोर जोर से धड़कने लगा। पसीने से भर गया था उसका चेहरा। भाभी को समझते जरा भी देर नहीं लगी…कुछ तो गंभीर बात है।
“अविनाश…क्या हुआ??? कोई बात है क्या??”
“पापा को हार्ट अटैक आया है। मुझे जाना होगा।” इतना कहते ही अविनाश की आंखों में आसूं आ गए।
“अविनाश…मेरी कार ले जाओ। ड्राइवर छोड़ आएगा तुम्हें।” भाभी का एक भावुक आदेश था ये…तो अविनाश मना नहीं कर सका।
जैसे ही अविनाश जाने को तैयार हुआ…सुमन ने भाभी की ओर मुंह कर के मानों अविनाश से ही बोला,
” भाभी… मैं भी जाऊंगी अविनाश के साथ।”
दोनों चल पड़े थे। एक दम सन्नाटा था कार में। सुमन के हृदय में हज़ारों बातें थीं…लेकिन आज खामोशी ही विजयी थी। करीब पांच घंटे के सफ़र में, सुमन अविनाश को देखती रही और अविनाश अपने पिता जी की यादों में मन ही मन रोता रहा।
सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचे दोनों। वहां पहुंच कर पता चला कि अभी हालत सुधार की ओर है। लेकिन अभी दस बारह दिन अस्पताल में ही रहना होगा। अविनाश ने चैन की सांस ली। सुमन ने पहुंचते ही अविनाश के पिता जी के देखभाल की सारी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ले ली। खाना पीना दवा और अन्य सभी दैनिक कार्य के लिए सुमन सहर्ष हर क्षण तैयार रहती। अविनाश का तो कोई काम ही नहीं था वहां। सुमन, एक बेटी की तरह अविनाश के पिता जी को अपना पिता मानकर सेवा भाव से चौबीस घंटे वहीं हॉस्पिटल में पड़ी रहती।
“बेटा अविनाश…!!!” पापा ने अविनाश को पुकारा। सुमन भी तुरंत खड़ी हो उनके बेड के पास पहुंच गई।
“हां…पापा…!” अविनाश अपनी अर्धनिद्रा से जागते हुए बोला।
“बेटा…अब मैं ठीक महसूस कर रहा हूं। सुमन पिछले दस दिनों से यहीं है। बहुत खयाल रखा इसने मेरा। शायद तुम भी इतना ना कर पाते। अब इसे घर छोड़ आओ। और तुम भी जा कर अपनी नौकरी ज्वाइन कर लो। यहां तो नर्स लोग हैं ही। नरेश अंकल भी आ ही जाते हैं।”
अविनाश कुछ बोलता, इससे पहले सुमन ही बोल पड़ी,
“नहीं अंकल…आप ऐसा मत बोलिए। शायद मैं आपकी अपनी बेटी नहीं इसलिए आप ऐसा बोल रहे। मैं कहीं नहीं जाऊंगी…जब तक आप बिल्कुल ठीक होकर घर नहीं पहुंच जाते। हां…अविनाश तुम लखनऊ चले जाओ। आखिर कब तक छुट्टी लिए यहां पड़े रहोगे। मैं जब तक हूं.. तुम ज़रा भी चिंता मत करना।”
अविनाश ये सब सुनते ही अवाक रह गया।
“अरे सुमन…ये तुमने क्या कह दिया। मैं तुम्हे समझ ही नहीं पाया। कैसा स्वार्थी हूं मैं?? हमेशा बदला लेने की ही सोचता था मैं बस। लेकिन सुमन…तुम्हारे हृदय में इतना प्रेम है हमारी खातिर…मुझे एहसास ही नहीं था।” अविनाश अपने अंतर्मन में सोचता रहा।
सुमन और पापा के काफी जिद्द करने पर अविनाश लखनऊ लौटने लगा। सुमन के बारे में ही सोचता हुआ सो गया था वो…लखनऊ की बस में।
शाम का वक्त था। दवा का वक़्त हो गया था। सुमन ने देखा अविनाश के पापा गहरी नींद में सो रहे थे। सुमन एक टक उनकी ओर देखती रही। सुमन को अपनी ही परछाई बिल्कुल अविनाश के पिता जी के सम्मुख खड़ी दिखाई दी।
“वाह रे सुमन…कैसा माया जाल फैलाया तूने…! तेरे एहसान के तले ये दोनों अब दब गए हैं। बस यही मौका है। अपना बदला पूरा कर तू। कल जो ज़हर की पुड़िया ले आयी थी…दे क्यूं नहीं देती। फिर मौका नहीं मिलेगा। किसी को शक भी नहीं होगा। और होगा भी तो क्या…तेरा अविनाश से बदला तो पूरा हो जाएगा। तेरी खुशियों को बर्बाद किया है उसने। अपने पूरे परिवार की नज़रों में गिर गई तू। क्या भरोसा…तेरे इतना सब कुछ करने के बाद भी अगर उसने तुझे ना आपनाया तो। ज्यादा सोच मत। सेवा तो बस नाटक था। असल उद्देश्य तो बदला लेना था तुझे।”
ज़हर की उस पुड़िया को सुमन दवा में मिलाकर अविनाश के पापा को जगाती है।
“अंकल…उठ जाईए। दवा का समय हो गया।” सुमन के हांथ कांप रहे थे।
“क्या हुआ बेटा…तबीयत तो ठीक है तुम्हारी।” बड़ी आत्मीयता से उन्होंने सुमन से पूछा।
“हां… मैं ठीक हूं। आप दवा पीजिए।” सुमन ने दवा की ग्लास उनके मुंह से लगा दिया।
अविनाश के पापा बेड पर मूर्छित से पड़े हुए थे। सुमन उन्हें देख कर अचानक ही अट्टहास कर के हसने लगी। उसकी अट्टहास में एक गर्जना थी।
सुमन चिल्ला रही थी,
“अविनाश…देख मैंने ले लिया अपना बदला । अविनाश….अविनाश….बोलता क्यूं नहीं अब तू….!!”
तभी अचानक जैसे अविनाश अपनी निद्रा से जाग उठा।
“अरे….क्या ये स्वप्न था। हे भगवान…ये मैं क्या कर आया??” अविनाश को लगा जैसे सुमन के भरोसे अपने पापा को छोड़ कर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी।
कहानी अभी जारी है…..🙏🙏😊
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02