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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

6 मैपलटन वे, टारनेट, विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

संघर्ष : अखबार वाला ( भाग १ )

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अख़बार वाला…!!!

दसवीं की परीक्षा के परिणाम का दिन था आज। राधेश्याम सुबह सुबह करीब तीन बजे ही उठ गया।

“अरे…इतनी सुबह सुबह ही उठ गए…क्या हुआ..?? आज जल्दी जाना है क्या???” राधेश्याम की पत्नी कुसुम ने पूछा।

“हां…आज रिज़ल्ट आएगा। सुबह सुबह ही जाना पड़ेगा। पेपर उठाना है…! कुछ पैसे मिल जाएंगे।” राधेश्याम की साइकिल तैयार थी और शायद उसका विश्वास भी… कि आज तो कमाई थोड़ी ज्यादा ही होगी उसकी।

समाचार पत्र बांटने का काम था राधेश्याम का। और ये दौर था तब का…जब दसवीं बारहवीं के परीक्षा परिणाम समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ करते थे।

राधेश्याम की साइकिल हवा से बातें करती हुई चल दी थी रेलवे स्टेशन की ओर।

“कुसुम के लिए कितने सालों से कोई साड़ी नहीं ली। रोहन का जूता फट गया है।  छोटी की स्कूल ड्रेस भी तो पुरानी हो गई है। कैसे श्रीवास्तव जी के बेटे की छोटी साइकिल देख कर रोहन रोने लगा था। रोहन के लिए साइकिल ही ले आऊंगा। लेकिन तीन माह से स्कूल की फीस भी तो नहीं जमा की। फीस जरूरी है। पहले तो फीस ही जमा कर दूंगा। पढ़ाई बहुत जरूरी है। हां…फीस का हिसाब ही पूरा करूंगा…आज की कमाई से।” राधेश्याम अपनी जिम्मेदारियों के बोझ का कोई एक छोटा सा भाग हल्का कर पाने का स्वप्न लिए चला जा रहा था।

वैसे तो राधेश्याम कुछ ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था, लेकिन शिक्षा के प्रति उसका एक अटूट विश्वास था। कारण शायद ये ही रहा होगा… कि शिक्षा का अभाव उसे अवश्य ही पग पग पर महसूस होता रहा था। कैसे जीवन की कठिनाईयों को झेलने के कारण उसे अपनी पढ़ाई का परित्याग करना पड़ा होगा। जिम्मेदारियों के बोझ ने कैसे उसके कंधों से किताबों का बोझ उतार दिया होगा। जिंदगी की छोटी छोटी जरूरतें पूरी हो सकें…उसके लिए एक एक रुपए जुटा पाने की उसकी मेहनत ने जरूर उससे किताबों का मोह खत्म कर दिया होगा।

लेकिन अभाव में जीवन बिताने वाला राधेश्याम, संकल्पित था…अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने के लिए। संकल्पित था…हर वो सुख अपने बच्चों को देने के लिए, जो शायद उसे कभी नहीं मिली।

लेकिन…क्या संकल्प ही पर्याप्त है… मन की हर इच्छा पूरी कर पाने के लिए…?? क्या सिर्फ संकल्प मात्र से रोहन का जूता खरीदा जा सकता था। छोटी की स्कूल ड्रेस या फिर स्कूल की फीस भरी जा सकती थी…??? शायद नहीं…!!! लेकिन हां…एक संबल अवश्य मिलता होगा…क्यूं कि वास्तविकता की धरातल पर संकल्प एक ऐसे वचन पत्र की तरह होता है…जिसका वर्तमान में भले ही कोई मूल्य ना हो…लेकिन भविष्य में उसकी ठीक ठाक कीमत पा लेने की संभावना तो होती ही है। राधेश्याम का ऐसे विचारों में पूर्ण विश्वास था। उसे पूर्ण विश्वास था…उसके यही संकल्प एक दिन उसके सहायक साबित होंगे…अपने अभावों को समाप्त कर पाने में…उसके मददगार होंगे।

हाकरों की भीड़ लगी हुई थी…रेलवे स्टेशन पर। सभी मानों किसी अप्रदर्शित रोष से भरे हुए थे। सभी के चेहरों पर दुख के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे।

“का भवा यार अनिल…??? काहे मुंह लटकाए खड़ा हय सब लोग…??” राधेश्याम ने अपने एक हाकर साथी से  पूछा।
अनिल ने बिना कुछ बोले…राधेश्याम को एक समाचार पत्र पकड़ा दिया।

“इंटरनेट पर प्रकाशित होंगे दसवीं के परिणाम!” समाचार पत्र की प्रमुख व पहली न्यूज यही थी।

ख़बर दुखद थी। मानों, बिना परीक्षा दिए ही राधेश्याम दसवीं में अनुत्तीर्ण हो गया था। किसी ने सही ही कहा है…”अगर सपना अपना होता तो हर कोई राजा ही होता।” सुनहरे स्वप्न की मीनारें जो राधेश्याम ने खड़ी की थी…उसकी नींव ही धंस गई। जिम्मेदारियों के निर्वहन का उसका संकल्प…टूटता सा दिखाई दे रहा था।

एक क्रांति का दिन था वो। एक ओर प्रौद्योगिकी के विकास के एक अद्भुत चरण की क्रांति थी…तो वहीं दूसरी ओर राधेश्याम जैसे अनगिनत निर्बलों के टूटते आत्मविश्वास की धारा का प्रवाह था।

सुबह के आठ बज चुके थे। रविवार का दिन था।
“अरे ये साला राधेश्याम कहां मर गया…पेपर नहीं लाया आज…!!!” इंजीनियर साहब रामधीर पांडेय जी मन ही मन बुदबुदाए।
“शिवम् के पापा…आज पेपर नहीं आया है…कैलेंडर में लिख लेना…नहीं एक दिन का पैसा फालतू में ले जाएगा…राधेश्याम।” डॉ सुमन कि चाय फीकी थी आज बिना पेपर के।
“इस महीने कोई दूसरा पेपर वाला लगवा लो जी…रविवार है आज…और पेपर नहीं आया।” सुनिधि मैडम मानों अखबार का गुस्सा अपने पतिदेव पर ही निकाल रही थी।

लेकिन राधेश्याम शोक के सागर में था। अख़बार बाटने नहीं गया आज। बैठा रहा वहीं रेलवे स्टेशन पर। घर भी नहीं गया। सीधे नौकरी पर चला गया था आज वो।

शायद साहस नहीं था उसके पास…कुसुम से नज़रें मिला पाने का… कि एक साल से एक साड़ी तक नहीं दे पाया वो।

साहस नहीं था उसके पास…रोहन से नज़रें मिला पाने का… कि उसका फटा हुआ जूता नहीं बदल सका वो। उसके लिए एक साइकिल ना ला सका।

साहस नहीं था उसके पास… कि वो छोटी के सामने जा पाए…अपनी बेटी के पुराने स्कूल ड्रेस को बदल कर एक नई ड्रेस ला पाए।

साहस नहीं था उसके पास…अपने बच्चों के स्कूल में आज अखबार पहुंचा पाने का…।

साहस नहीं था उसके पास…फिर से तीन माह की स्कूल फीस ना जमा कर पाने का तकादा सुन पाने का।

रात के आठ बजे थे। अपने खोए हुए आत्मविश्वास को बटोर कर…राधेश्याम निकल पड़ा अपने घर की ओर। कल फिर से उसे अखबार बांटने घर घर जाना है।

#मौलिक
#स्वरचित
©ऋषि देव तिवारी

Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02

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