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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

महाराष्ट्रीय लोककला : तमाशा और लावनी

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महाराष्ट्रीय लोककला : तमाशा और लावनी

                                     बिरारी पोपट भावराव

(सहायक प्राध्यापक )

                                          के.एस.के.डब्ल्यू. कला, विज्ञान व

                                          वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नाशिक

मोबाईल-9850391121

ईमेल – popatbirari@gmail.com

प्रस्तावना 

        तमाशा महाराष्ट्र के लोकनाट्य का एक प्रसिद्ध प्रकार है| तमाशा का अर्थ है “वह दृश्य अथवा कार्य जिसके देखने से मनोरंजन हो|”1 तमाशा में कई कलाकार होते है| उसमें तमाशगीर होता है; साथ ही उसमें सात-आठ या उससे भी अधिक तमाशगीरों का एक समूह रहता है| ऐसे समूह को महाराष्ट्र में ‘फड’ कहा जाता है| उसके प्रमुख को सरदार या नाईक नाम से जाना जाता है| यह नाईक अर्थात तमाशा के नाट्य दर्शन का नायक ही होता है| इसके अलावा नृत्य कुशल स्त्री वेशभूषा धारण करनेवाला ‘नर्तक’ (नाच्या), विचित्र वेशभूषा करके हास्य-विनोद करनेवाला विदूषक (सोंगाड्या), ढोलकी, तुनतुनी बजानेवाले साथीदार और पीछे खड़े होकर ‘जी जी ग जी, जी र जी’, ऐसे लावणी के चरणों के अंत में सुनाई देनेवाला सुर आदि तमाशा में आवश्यक होते है|

        तमाशा यह परंपरागत रूप से महाराष्ट्र की संस्कृति से जुड़ा लोगों का मनोरंजन करनेवाला नाट्य है| गावों में मेला एवं होली जैसे त्यौहार के समय तमाशा कार्यक्रमों का विशेष महत्व होता है| तमाशा देखने के लिए दूर-दूर से लोग इकठ्ठा होते है और उसका आनंद लेते है| तमाशा के लिए विशेष रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती| छोटा कार्यक्रम हुआ तो किसी चौराहे पर या बड़ा हुआ तो किसी खुली बड़ी जगह पर भी आयोजित किया जा सकता है| तमाशा में मशाल जलाकर भी प्रकाश योजना तैयार की जाती है| प्रमुखतः श्रुंगार प्रधान लावनी सुनाना और उनके अनुरूप श्रुंगार हास्यात्मक मनोरंजन करना यह तमाशा का स्थूल स्वरुप है|

तमाशा का उदय :-

        तमाशा का उदय कब और किन परिस्थितियों में हुआ इसके संदर्भ में विद्वानों में मतभेद होने के बावजूद भी तमाशा को परंपरागत स्वरुप प्राप्त हुआ है; वह पेशवाई में ही इसमें संदेह नहीं| पं. महादेवशात्री का मानना है कि “विशेषत: उत्तर पेशवाईत सवाई माधवराव व दूसरा बाजीराव यांच्या कारकीर्दीत तमासगीर शाहिरांना राजाश्रय लाभल्यामुळे विशेष उत्कर्ष झाला.”2 (विशेषतः उत्तर पेशवाई में सवाई माधवराव और दूसरे बाजीराव इनके कार्यकाल में तमाशगीर शहिरों को राजाश्रय मिलने से विशेष विकास हुआ|) राम जोशी, अनंत फंदी, होनाजी बाळा, सगनभाऊ, प्रभाकर, परशुराम आदी प्रमुख शाहीर इसी कालखंड में प्रसिद्ध हुए| पेशवाई काल में तमाशा को ‘ढोलकी का तमाशा’ कहा गया| गण-गवळण लावणी और मुजरा आदि पेशवाकालीन तमाशा के प्रमुख अंगो में से एक है| ‘गण’ अर्थात गणेश वंदना के गीत है| ढोलकी-तुनतुनी बजानेवाली मंडली दर्शक वर्ग के सामने जाकर गीत गाती है| ‘गण’ के पश्चात ‘गवळण’ अर्थात कृष्ण-गोपियों के लीला गीत है| ऐसे गीतों की रचनाएँ संतो ने भी की है| तमाशा में गवळण गायन के रूप ही में प्रस्तुत नहीं की जाती अपितु वह अभिनय और संवाद के माध्यम से भी प्रस्तुत होती है| दूध-मक्खन लेकर राधा और उसकी सहेलियाँ मथुरा के हाट में जाती है तब कृष्ण और उसके दोस्त गोपियों के रास्ते में अडंगा पैदा करके उन्हें छेड़ते है| यह इस कार्यक्रम का मुख्य भाग है| गोपियाँ ‘कृष्ण’ और ‘गोप’ बालकों को अहमियत न देते हुए आगे बढती है| ऐसे समय कृष्ण राधा का आँचल पकड़ लेते है|

        तमाशा शब्द ‘अरबी’ भाषा का है| तमाशा संस्था के शिल्पकारों को शाहीर नाम की संज्ञा मिली| वह संज्ञा मूलतः शायर अथवा शाहर इस अरबी शब्द से बनी है| शाहीर शब्द ‘महिकावत’ की बखर में मिलता है| शाहीर और तमाशा का शिव काल के समय उदय हुआ और पेशवा काल में विकास हुआ| पुणे में होली के त्यौहारों पर तमाशा के कार्यक्रम आयोजित होते थे तब सरदार एवं अन्य लोग वहाँ उपस्थित होकर आनंद लेते| पेशवाओं की ओर से तमाशगीरों को अच्छा उपहार मिलता| डॉ.साधना बुरडे का कथन है कि “तमाशा कला हे महाराष्ट्रातील सांस्कृतिक लेणे आहे. आणि तिला दुसऱ्या बाजीरावापासून बरकत आली. म्हणजे राजाश्रय आणि लोकाश्रय या आधारावर ही कला जगली व वाचली पण हे जरी खरे असले तरी त्यांचे सांगोपान अस्पृशांच्या झोपडीतच झाले.”3 (तमाशा कला यह महाराष्ट्र संस्कृति का आभूषण है और उसे दूसरे बाजीराव से बरकत आयी| अर्थात राजाश्रय और लोकाश्रय इस आधारपर यह कला प्रदीप्त हुई और शेष रह गई: यह सत्य हुआ तो भी उसका पालन-पोषण अस्पृशों की कुटिया में हुआ|) तमाशगीरों की आर्थिक समस्या विकट होने पर तत्कालीन बड़ोदा के राजा ‘गायकवाड’ से राजाश्रय मिलाता| राम गोंधली, सवाई फंदी, सगनभाऊ, परशुराम, प्रभाकर, बाकेराव आदी शाहीरों को राजाश्रय मिला था| राजा की इसतरह की उदारता पर शाहीर प्रभाकर ने कृतज्ञता के उद्गार निकाले थे| सन.१८६५ के समय ‘उमा बाबुने’, ‘मोहन बटाव’ इन्होने पहला ‘वग’ लिखा और ‘तमाशा वग’ नाट्य प्रस्तुत होने लगा| लोकशाहीर ‘अण्णाभाऊ साठे’ ने तमाशा का लोकनाट्य में रूपांतरण करके ‘तमाशा’ इस लोककला को मूर्त रूप देने में योगदान दिया है|

लावनी :-

        लावनी महाराष्ट्र का लोकप्रिय नृत्य है| लावनी शब्द का अर्थ है “एक तरह का चलता गाना”4 मराठी भाषिक उसके के लिए महाराष्ट्र में ‘लावणी’ शब्द का प्रयोग करते है| ‘गवळण’ के पश्चात मुख्यतः श्रृंगारिक लावनी के गीतों का कार्यक्रम होता है| लावनी के गीत डफ बजाकर गाए जाते है| लावनी के गीत गाते समय स्त्री अथवा पुरुष रूप में नांच करनेवाला नर्तक नृत्य आभिनय से लावनी कला में जीवंत रूप देने का कार्य करते है| लावनी के नाम पर नाटक-सिनेमा के लोकप्रिय श्रुंगारिक गीत भी प्रसिद्ध होते है| ‘छक्कड़’ अर्थात नाट्य गीतों के या द्वंद्व गीतों की लावनी है| ‘पट्ठे बापूराव’ ने ऐसी छक्कड़-रचना की है| इसलिए ‘छक्कड़ तमाशा’ में छक्कड़ गीतों का प्रकार लोकप्रिय हुआ| सनातनी बुद्धिजीवी वर्ग ने ऐसे गीतों पर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ दी है क्योंकि तमाशा में इन गीतों से अश्लीलता आती है| ग्राम परिवेश से जुड़े दर्शक ऐसे प्रसंगों में सीटी बजाते है तथा बीच-बीच में छलाँगे लगाते है|

तमाशा का बदलता स्वरुप :-

        समय के अनुसार ‘तमाशा’ इस लोककला में कुछ परिवर्तन अवश्य हुए है| अंग्रेज शासनकाल में तमाशगीरों को राजाश्रय मिलना कठिन हो गया था| इ.स.१८५० तक पेशवा कालिन प्रसिद्ध शाहीर नही रहें| इस कारण मनोरंजन के नए असंस्कृत युग का सूत्रपात हुआ| विद्वानों का मानना है कि “तमाशा केवळ ग्रामीण असंस्कृत जनांच्या करमणुकीचाच विषय म्हणून राहीला.”5 (तमाशा केवल ग्रामीण असंस्कृत लोगों के मनोरंजन का ही विषय बनकर रह गया|) मराठी सिनेमा के गीतों में तमाशा की लावनी-संगीत का प्रभाव पड़ा वैसे ही तमाशा में अश्लीलता बढ़ने लगी| पुरानी श्रुंगारिक लावनी के साथ नई पीढ़ी मराठी सिनेमा के लोकप्रिय श्रुंगारीक गीत गाने लगी| स्वाधीनतापूर्व काल में बम्बई सरकारने ‘तमाशा सुधारना समिति’ का गठन करके तमाशा में होनेवाले अनिष्ट प्रकारों पर पाबंदियाँ लगाने का प्रयास किया| उसके बाद ‘तमाशा परिषद संस्था’ स्थापन हुई| इस संस्था के माध्यम से तमाशा का लोकपरंपरागत स्वरुप बनाएँ रखने का प्रयास हुआ| प्रतिवर्ष इस संस्था के अधिवेशन होते है तथा शासन के प्रोत्साहन से तमाशा महोत्सव भी कई शहरों में मनाएँ गए है| तमाशा का लोगों के मन पर बढता प्रभाव केंद्र में रखकर अनेक सामाजिक एवं राजकीय संस्थाओं ने ‘तमाशा’ को प्रचार का साधन बनाकर उससे अपना स्वार्थ साधना चाहा है; इस बात को नकारा नहीं जा सकता| अतः लगभग तीन शताब्दियों से तमाशा इस लोककला में कई परिवर्तन हुए है|

निष्कर्ष:-

        ‘तमाशा’ यह महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लोकनाट्य कला है; जिसमे महाराष्ट्र की परंपरागत प्रादेशिक संस्कृति के दर्शन होते है| ‘लावनी’ यह तमाशा से जुडी लोकनृत्य कला है| तमाशा मनोरंजन का परंपरागत माध्यम होने के बावजूद भी समसामयिक परिवेश में उसमें बदलाव हुए है| आधुनिक काल में दर्शकों की रूचि देखकर तमाशा मंडली पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित नए गीत दर्शाने लगे| ऐसे असंस्कृत गीतों का प्रयोग होने पर उन्मुक्त तमाशा मंडली को अमीरों की साथ मिली; परिणाम स्वरूप तमाशा में भद्दापन अधिक पैमाने में बढ़ता गया| किसी व्यक्ति को कोई फूहड़ गीत पसंत आनेपर नृत्य करनेवाली स्त्री को पैसे देकर दोबारा मनचाहे गीत पर नाचने के लिए कहना, लावनी पर नाचनेवाली नर्तकी को शरीर स्पर्श करना तथा बीच-बीच में उछलकर नाचना आदि बेढंगापन तमाशा में बढने लगा| अतः तमाशा में लोक परंपरागत रूप बनाएँ रखने की आवश्यकता है क्योकि उससे हमारी प्रादेशिक संस्कृति की पहचान होती है|   

संदर्भ :-

  1. श्री.नवलजी, नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ.४९९
  2. पं. महादेवशास्त्री जोशी, भारतीय संस्कृती कोश, खंड-४, पृ.३९
  3. डॉ. साधना बुरडे, तमाशातील स्त्री कलावंत जीवन आणि समस्या, पृ.३५
  4. डॉ. हरदेव बाहरी, राजपाल हिन्दी शब्दकोश, पृ.७२१
  5. पं. महादेवशास्त्री जोशी, भारतीय संस्कृती कोश, खंड-४, पृ.४२         

Last Updated on November 2, 2020 by popatbirari

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