दृष्टि विहीन हुआ, मनुज संताप की वेदना भारी है,
देव,देव न रहे, निर्विवाद है
विध्वंस की भावना जारी है,
किस ओर दृष्टि डालूँ ,
कृतघ्नता चहूँ ओर,
विनिर्माण या निर्वाण
परित्याग चारो ओर,
पुष्प अब प्रस्फुटित होते नहीं,
प्रेम की ललक अब जाती रही,
भय व्याप्त हुई मंडल की आभा पर,
सत्य,प्रकाश की आशा अब आती नहीं,
उठो मनुष्य,इस प्रथा को तोड़ दो,
काल के कपाल से जीवन को छीन लो,
ध्यान के प्रभाव से तुम भरो हुंकार,
बिखरीं कड़ियों को तो बीन लो,
महा समर अभी शेष है,
दृढ़ प्रतिज्ञ तुम बनो,
धैर्य,शौर्य आयुध हैं तेरे
मानव की तुम ढाल बनो,
महा मानव की प्रति छाया दुरूह,
मृत्यु संगिनी साथ चले,
छिन्न भिन्न विच्छिन्न समर्पण
कैसे उज्ज्वल ज्योति जले.
मन मकरंद की भाँति विचरण से
आक्रोश परिलक्षित होता है,
सत्य की परिभाषा से ही
जिज्ञासा लक्षित होता है,
कृत्य,पात्र,समवेत जिज्ञासा
क्षण,क्षण विस्मृत होती जाती,
क्या अविरल नीर के बहने से
पाषाण पिघलते देखा है ?
चिर मंगल की यह बात नहीं
अनुपुरित सत्य को पूर्ण करो,
नियति,देव सब होंगे तब
निर्धारित कार्य सम्पूर्ण करो,
सर्ग, कविता, रचना कही
लेखन हो प्रतिबद्ध,
कहे बेख़ौफ़ कि स्वप्नों से
रहो सदा कटिबद्ध.
-हरिहर सिन्हा ‘बेख़ौफ़’
Last Updated on October 26, 2020 by hariharsinha.sbi
1 thought on “उत्कर्ष”
कविता प्रकाशन हेतु धन्यवाद
🙏🏻🙏🏻